एक महात्मा हो गये – स्वामी राम | Swami Ram ( स्वामी रामतीर्थ नहीं , दूसरे संत थे ) । 
उनके गुरु बड़े उच्च कोटि के संत थे । स्वामी राम ने अपनी आत्मकथा में लिखा है : ‘प्रायः बच्चों में स्वार्थ-परायणता देखी जाती है, वे अन्य बालकों को कुछ भी नहीं देना चाहते लेकिन मुझे बचपन में ही सब कुछ दे देने की, स्वार्थ रहित सेवा करने की सुंदर शिक्षा मिली अपने पूज्य गुरुदेव से।’

– उन दिनों मैं पर्वतों में निवास करता था और दिन में सिर्फ एक बार भोजन करना था । एक रोटी, थोड़ा साग और एक गिलास दूध- यही मेरा भोजन था । 

एक दिन दोपहर को हाथ-पैर धोकर भोजन करने बैठा । ब्रह्मार्पन करके भोजन प्रारम्भ करने ही वाला था कि गुरुदेव आकर बोले : “कुछ देर रुक जाओ ।” 

 मैंने कहा :”आज्ञा करें गुरुदेव !”

 “एक वृद्ध महात्मा आये हैं, उन्होंने कई दिनों से भिक्षा नहीं की है । तुम अपना भोजन उन्हें समर्पित कर दो ।”

 “मैं क्यों दूँ ? मैं भी तो भूखा हूँ और मुझे कल इसी समय भोजन मिलेगा ।” 

 गुरुदेव मेरे इस व्यवहार से कुपित नहीं हुए बल्कि मुझे समझाते हुए बोले : “तुम मरोगे नहीं, उन्हें भोजन दे दो किंतु इसलिए न दो की यह मेरी आज्ञा है बल्कि श्रद्धा-भाव से भरकर दो।” 

“मैं भूख से क्षुब्ध हूँ । मेरे हृदय में उनके प्रति श्रद्धा कैसे उत्पन्न हो सकती है, जो मेरे लिए परोसा हुआ भोजन ग्रहण करना चाहते हैं ?” 

जब कई बार कहने के पश्चात भी गुरुदेव मुझे न समझा सके तो बोले : “मैं तुम्हे स्वामीजी को अपना भोजन समर्पित करने की आज्ञा देता हूँ ।” 

महात्मा भीतर आये…. वे अति वृद्ध थे । वे अकेले ही पर्वत-मालाओं में भ्रमर करते थे । वे महान त्यागी व विरक्त महापुरुष थे |

गुरुदेव ने महात्मा जी का स्वागत करते हुए कहा : “मुझे अपार हर्ष है कि आप यहाँ पधारे। कृपा करके इस बच्चे को आशीर्वाद दीजिये ।” 

मैंने उखड़े स्वर में कहा : “मुझे आशीर्वाद की आवश्यकता नहीं है, मुझे भोजन चाहिए ।”

इतना उदंडतापूर्ण उत्तर सुनने पर भी गुरुदेव मुझसे प्यार से बोले : “बेटा यदि तुम इन निर्बल क्षणों में अपना आत्मसंयम खो बैठे तो जीवन-सफर में कभी भी विजय प्राप्त नहीं कर पाओगे। जाओ, जल देकर स्वामीजी के पैर धोओ और भोजन कराओ।”

 गुरुदेव की आज्ञानुसार मैंने वैसा ही किया किंतु मुझे यह रुचिकर न लगा और न ही मैं इसका मंतव्य समझ पाया। मैंने महात्माजी के चरण पखार के उन्हें भोजन ग्रहण करने की प्रार्थना की। बाद में मुझे ज्ञात हुआ कि वे चार दिनों से भूखे थे।

महात्माजी ने भोजन किया, प्रसन्न होकर बोले “ईश्वर तुम्हें प्रसन्न रखे बेटा !! जा, तुझे भूख कभी भी नहीं सतावेगी जब तक भिक्षा तेरे सामने प्रस्तुत न हो यह मेरा आशीर्वाद है।”

उनके शब्द आज भी मेरे कानों में गूंजते हैं। उस दिन से रात-दिन सताती हुई क्षुधा से मुझे मुक्ति मिली जो मुझे छिछोरा व्यवहार करने को बाध्य करती थी। उस दिन गुरुदेव ने मुझे निःस्वार्थता का पाठ पढ़ाया ।

निःस्वार्थ कर्मों को करने में जो सर्वोच्च सुखानुभूति होती है, आत्मज्ञान की उपलब्धि में वह एक आवश्यक सोपान है। क्योंकि स्वार्थी व्यक्ति ज्ञान की इस अवस्था की कभी कल्पना तक नहीं कर सकता। 

 स्वामी राम (Swami Ram) का यह जीवन-प्रसंग हमें बताता है कि शिष्य का परम मंगल किसमें है यह तो सदगुरु ही जानते हैं और करते भी हैं, भले ही शिष्य की अल्प मति में मन-बुद्धि से पार परमात्मा से एकाकार हुए गुरुदेव की लीला समझ में न आये । गुरुदेव कितने करुणावान होते हैं शिष्य के प्रतिकूल व्यवहार को भी वे क्षमा कर देते हैं और उसका कल्याण कैसे हो वही करते हैं। ऐसे सद्गुरुओं की महिमा का वर्णन लेखनी में आ ही नहीं सकता । गुरुदेव क्षमा के सागर हैं तो शिष्य गलतियों का ढेर होता है, फिर भी गुरुदेव करुणा करके उसे तराशकर नायाब हीरा बना देते हैं।

 सीख :- निःस्वार्थता से किया गया कर्म महान फलदायी होता है। वह भले तुरंत न दिखे किंतु उससे मनुष्य का इहलोक और परलोक दोनों सँवर जाते हैं। अतः थोड़ी तितिक्षा सहकर भी निःस्वार्थ कर्म करने चाहिए । 

 प्रश्नोत्तरी 
 (१) स्वामी राम को वृद्ध महात्मा ने इतना बड़ा वरदान क्यों दिया ?