साईं श्री लीलाशाहजी महाराज निर्वाण दिवस : 29 अक्टूबर

पूज्यपाद सदगुरुदेव (Sai Lilashah Ji Maharaj) एक बार घूमते-घामते दक्षिण भारत में महान् योगीराज ब्रह्मज्ञानी श्री रमण महर्षि (Shri Ramana Maharshi Ji) के पास गये थे। जब वे रमण महर्षि (Shri Ramana Maharshi Ji) से प्रत्यक्ष मिले तब उनकी ज्ञाननिष्ठा और अन्तर्मुखता को देखकर श्री रमण महर्षि (Shri Ramana Maharshi Ji) ने उनसे पूछाः

“आप इतनी ऊँची भूमिका को प्राप्त करने के बाद भी नीचे की भूमिका में कैसे रह पाते हैं?”

पूज्यश्री ने हँसते-हँसते सहजता से जवाब दियाः
“मेरे हजारों भाई आत्मानन्द की मस्ती से वंचित हैं। उन लोगों को आत्मानंद की प्राप्ति कराने के लिए नीचे की भूमिका में रहना मैं ज्यादा पसंद करता हूँ।”

श्री रमण महर्षि (Shri Ramana Maharshi Ji) तो उनकी इतनी उच्च भावना एवं त्याग को देखकर जोर से उनके गले लग गये। महर्षि की आँखों से हर्ष के आँसू बहने लगे।

श्री रामकृष्ण परमहंस (Shri Ramkrishan Paramhans) कहते हैं कि संत दो प्रकार के होते हैं। जिस प्रकार लकड़ी का छोटा टुकड़ा पानी में तैरता है परंतु उस पर यदि एक छोटा सा पक्षी भी बैठे तो पक्षी सहित वह टुकड़ा पानी में डूबने लगेगा। किन्तु बड़े वृक्ष के तने के लकड़े में से बनायी गयी नाव खुद तो पानी में तैरती है और दूसरे यात्रियों को भी पार पहुँचाती है। इसी तरह ज्ञानी संत भी दो प्रकार के होते हैं- एक तो वे, जिन्होंने साधना करके अपने-आपको तार लिया हो। दूसरे वे जो खुद तो तरते हैं और दूसरों को भी तारते हैं। ऐसे संतों के लिए शास्त्र में कहा गया हैः
सः तृप्तो भवति सः अमृतो भवति।
सः तरति लोकान् तारयति।।

स्वामी विवेकानन्द (Swami Vivekananda) कहते थेः
“ईश्वर के मार्ग पर चलना, भक्त बनना सरल है। भक्त से जिज्ञासु बनना सरल है। जिज्ञासु होकर आत्म-साक्षात्कार कर लेना और परमात्म-प्रेम की पराकाष्ठा पर पहुँच जाना भी सरल है परन्तु गुरु बनना खूब कठिन है। गुरुपद एक भयंकर अभिशाप है।”

आत्म-साक्षात्कार की ऊँचे से ऊँची अनुभूति करने के बाद भी, उससे नीचे आकर एक-एक व्यक्ति के साथ सिर खपाकर उसे उस अनुभूति तक ले जाना – यह कोई सरल काम नहीं है। पत्थर को भगवान बनाना सरल है क्योंकि पत्थर शिल्पी का विरोध नहीं करता परन्तु इस जीव को, दो हाथ-पैरवाले मनुष्य को शिव बनाना यह बहुत कठिन काम है क्योंकि यह अज्ञानी जीव जरा-जरा सी बात में विरोध करता है। ऐसा होने के बावजूद ब्रह्मवेत्ता महापुरुष अपने-आपकी चिन्ता किए बिना ‘सर्वजनहिताय’ की भावना से अपना पूरा जीवन प्रभु-प्रसाद बाँटने में ही खर्च कर डालते हैं।

जगत में जो कुछ भी शांति, आनन्द दिखता है वह ऐसे महापुरुषों की करुणा-कृपा का ही परिणाम है। ऐसे अकारण कृपा करने वाले दयासिन्धु अपने एकान्तवास का समय एवं समाधि का सुख छोड़कर मूढ़, अज्ञानी संसारीजनों के पाप-ताप दूर करने के लिए एवं उनको सच्चे सुख का मार्ग बताने के लिए अहैतु की करुणा बरसाते ही रहते हैं।

~जीवन सौरभ साहित्य से