मधुर संस्मरण – परस्पर संयमी जीवन !!!

( पूज्य बापूजी के मित्रसंत श्री लालजी महाराज द्वारा बताया गया अनोखा प्रसंग )

एकांत-साधना हेतु पूज्य बापूजी का कभी हरिद्वार, नारेश्वर (गुज.), माउंट आबू (राज.) तो कभी मोटी कोरल (गुज.) जाना होता रहता था।
एक बार बापूजी मोटी कोरल में रुके हुए थे तो वहाँ उनकी माँ व धर्मपत्नी आ पहुंचीं। उस समय का एक प्रसंग है।

प्रतिदिन शाम को ५ बजे मैं ( लालजी महाराज ) और आशारामजी नर्मदा किनारे जाते थे। नर्मदा में स्नान करके आशारामजी नदी के तट पर प्रवाह के पास ही बैठकर ध्यान करते थे।
एक बार लक्ष्मीदेवी ( पूज्य बापूजी की धर्मपत्नी ) निवास पर ही चबूतरे पर बैठकर कोई ग्रंथ पढ़ रही थीं । मैंने सोचा कि शायद मेरी उपस्थिति के कारण ये लोग एक-दूसरे से बात नहीं करते; इन्हें बातचीत का मौका देना चाहिए। इसलिए मैंने युक्ति की। एक दिन मैं आशारामजी के साथ नर्मदा-स्नान हेतु नहीं जा सका, बाद में गया। वहाँ आशारामजी एक फर्लांग (२२० गज) दूर ध्यान में बैठे हुए दिखे। आशारामजी की माँ के साथ आयी हुई उनकी धर्मपत्नी लक्ष्मीदेवी को मैंने ईशारे से कहा कि ‘आप भी वहाँ जाइये।’ मगर मैंने देखा कि लक्ष्मीदेवी उस ओर गयीं तो सही परंतु आशारामजी से भी आगे बहुत दूर चली गयीं। आशारामजी के नजदीक भी नहीं गयीं और फिर बाद में अपनी कुटीर में वापस चली गईं।

रात को जब आशारामजी मिलने आये तब मैंने उनसे पूछा “आपके पास शाम को कोई आया था क्या ?”
उन्होंने कहा ”नहीं, मैं तो ध्यान में बैठा था।” बाद में जब लक्ष्मीदेवी से बापूजी के पास न जाने व बातचीत न करने का कारण पूछा गया, तब उन्होंने बहुत ही सुंदर जवाब दिया : ‘इनके (बापूजी
के) ध्यान-भजन में विघ्न डालना तो पाप ही है न ! मुझे तो सेवा करनी है। इनके अवलम्बन से अपनी साधना सिद्ध करना यही मेरा धर्म है।”

*मुझे हुआ कि कैसे सुंदर विचार हैं उनके चित्त में !! मिलना, बात करना अथवा साथ में बैठना ऐसे कोई भी संस्कार नहीं थे इसलिए वे तो दूर से निकलकर सीधी चली गयीं। इससे स्पष्ट होता है कि लक्ष्मीदेवी वैराग्य की मूर्ति हैं, साधना में सहयोग देनेवाली पतिव्रता नारी हैं।
बाद में एक बार अकेले में आशारामजी ने मुझसे कहा था : ‘‘मेरी यह जो आत्मनिष्ठा व इन्द्रिय-विजय का भाव साधना में उच्च गति पा रहा है, इसका श्रेय मेरी धर्मपत्नी को भी जाता है।”
दोनों का परस्पर का कैसा अनोखा संयमी जीवन है !! हमारे लिए तो दोनों ही परम वंदनीय हैं। (इतना कहकर लालजी महाराज ने अहोभाव में भरकर आँखें बंद कर लीं ।) –

*ऋषि प्रसाद /अप्रैल २०१४*