माता को शिशु को प्रथम गुरु कहा गया है। इतिहास में ऐसे कितने ही उदाहरण हैं जिनमें महापुरुषों के जीवन में उनकी माताओं द्वारा दिये गये सुसंस्कारों की महत्त्वपूर्ण भूमिका दृष्टिगोचर होती है। हमारे शास्त्रों में माता मदालसा को आर्यमाता को आदर्श माना जाता है। उन्होंने अपने पुत्रों को बचपन में वेदांती लोरियाँ सुनाते हुए ब्रह्मज्ञान का अमृत पिलाकर ब्रह्मवेत्ता बना दिया था। छत्रपति शिवाजी महाराज की महानता के पीछे उनकी माता जीजाबाई का महान योगदान था। बालक कँवरराम माता की सत्शिक्षा से संत कँवरराम होकर अमर एवं पूजनीय हो गये। ऐसे ही पूजनीय माता माँ महँगीबा ने भी अपने पुत्र आसुमल की चित्तरूपी भूमि में महानता के बीज बचपन से ही डालने शुरु कर दिये थे।

ब्राह्ममुहूर्त में उठने व भगवद्भजन के संस्कार

अम्मा जी (माँ मँहगीबा) स्वयं तो ईश्वर की पूजा-अर्चना, ध्यान करती ही थीं, अपने पुत्र आसुमल में भी यही सँस्कार उन्होंने बाल्यकाल से ही डाले थे। अम्मा जी अनाज पीसते-पीसते नन्हें आसु को गोदी में बिठा कर सिंधी में यह भजन सुनातीं-

सुबुह सवेरो उथी निंड मां, पख्यां चूं चूं कनि

दींहं पोर्ह्यो पेट जो, रात्यां राम जपिनि।

मिठा मेवरड़ा से पाईंदा, जेके सुबुह जो जागनि

लाल साँईं दुध पुट लक्ष्मी तिन, जेके सुबुह जो जागनि।

अर्थात् प्रातः उठकर पक्षी किल्लोल करते हैं तब नींद से जग जाना चाहिए। जो दिन में पेट भरने के लिए परिश्रम करते हैं, वे भी रात को (रात्रि के अंतिम प्रहर यानी ब्रह्ममुहूर्त में) अंतरात्मा राम को रिझाते हैं। जीवन में मीठे फल वे ही पायेंगे जो सुबह जल्दी जागेंगे। उनको ही लाल  साँईं (भगवान झूलेलाल) धन-धान्य, सुख-शान्ति, पुत्र और लक्ष्मी प्रदान करते हैं।

इस प्रकार पूज्य बापू जी की बचपन में ध्यान भजन में रुचि जगाने वाली माँ महँगीबा जी ही थीं।

माँ ने बोये प्रभुप्रीति, प्रभुरस के बीज

पूज्य बापूजी कहते हैं- “मेरी यह माता इस शरीर को जन्म देने वाली माता तो हैं ही, साथ ही भक्तिमार्ग की गुरु भी हैं।

बचपन में मेरी माँ मेरे को बोलती थीं- “तेरे को मक्खन मिश्री खाना है ?”

मैं कहताः “हाँ।”

तो बोलतीं- “जा, आँखें मूँद के भगवान कृष्ण के आगे बैठ।”

तो हमारे पिता तो नगरसेठ थे, घर में तो खूब सम्पदा थी। जब मैं ध्यान करने बैठता तो माँ चाँदी की कटोरी में मक्खन-मिश्री लेकर मेरे सामने धीरे से खिसका के रख देती थीं। लेकिन मैं मक्खन मिश्री देखने बैठूँ तो नहीं रखती थीं। बोलतीं- “खूब जप कर, बराबर ध्यान करेगा तभी मिलेगा।”

फिर बराबर ध्यान करता तो माँ मक्खन मिश्री की कटोरी चुपके से रख देतीं।

पढ़ने जाता तो बोलतीं- “पेन चाहिए तुझे ? किताब चाहिए ?… भगवान से माँग।”

वे मँगा के रखतीं और जब मैं ध्यान करने बैठता तो भगवान के पास धीरे-से खिसका देतीं। मेरा तो भगवान में प्रेम हो गया। अब तो मक्खन-मिश्री क्या, भगवा का नाम हजार मक्खन-मिश्रियों से भी ज्यादा मधुर होने लग गया।”

माँ महँगीबा द्वारा अपने लाड़ले पुत्र आसुमल की चित्तरूपी भूमि में बोये गये वे प्रभुप्रीति,  प्रभुरस के बीज एक दिन विशाल वृक्ष के रूप में परिवर्तित हो गये। सद्गुरु भगवत्पाद स्वामी श्री लीलाशाह जी की पूर्ण कृपा प्राप्त कर आसुमल ब्रह्मानंद की मस्ती में रमण करने वाले ब्रह्मवेत्ता संत श्री आशाराम जी बापू हो गये।