मेरे आश्रम में एक महंत रहता है। मुझे एक बार सत्संग के लिए कहीं जाना था। मैंने उस महंत से कहाः “रोटी तुम अपने हाथों से बना लेना, आटा-सामान यहाँ पड़ा है।”

उसने कहाः “ठीक है।”

वह पहले एक सेठ था, बाद में महंत बन गया। तीन दिन के बाद जब मैं कथा करके लौटा तो महंत से पूछाः “कैसा रहा? भोजन बनाया था कि नहीं?”

महंतः “आटा भी खत्म और रोटी एक भी नहीं खाई।”

मैंने पूछाः “क्यों, क्या हुआ?”

महंतः “एक दिन आटा थाल में लिया और पानी डाला तो रबड़ा हो गया। फिर सोचाः थोड़ा-थोड़ा पानी डालकर बनाऊँ तो बने ही नहीं। फिर सोचाः वैसे भी रोटी बनाते हैं तो आटा ही सिकता है तो क्यों न तपेली में डालकर जरा हलवा बना लें ? हलवा बनाने गया तो आटे में गाँठें ही गाँठें हो गई तो गाय को दे दिया। फिर सोचाः चलो मालपूआ जैसा कुछ बनावें लेकिन स्वामी जी ! कुछ जमा ही नहीं। आटा सब खत्म हो गया और रोटी का एक ग्रास भी नहीं खा पाया।”

जब आटा गूँथने और सब्जी बनाने के लिए भी बेटी को, बहू को किसी न किसी से सीखना पड़ता है तो जीवात्मा का भी यदि परमात्मा का साक्षात्कार करना है तो अवश्य ही सदगुरू से सीखना ही पड़ेगा।

गुरू बिन भवनिधि तरहिं न कोई।
चाहे विरंचि संकर सम होई।।

गुरू की कृपा के बिना तो भवसागर से नहीं तरा जा सकता। ऐसे महापुरूषों को पाने के लिए भगवान से मन ही मन बातचीत करो किः “प्रभु ! जिंदगी बीती जा रही है, अब तो तेरी भक्ति, तेरा ध्यान और परम शांति का प्रसाद लुटाने वाले किसी सदगुरू की कृपा का दीदार करा दे।”