स्वामी रामकृष्ण परमहंस के अनन्य शिष्य श्री दुर्गाचरण नाग संसारी बातों में रूचि नहीं लाते थे। यदि कोई ऐसी बात शुरु करता तो वे युक्ति से उस विषय को आध्यात्मिक चर्चा में बदल देते थे। यदि उनको किसी पर क्रोध आता तो उस वक्त उन्हें जो भी वस्तु मिल जाती उससे अपने-आपको पीटने लगते और स्वयं को सजा देते। वे न तो किसी का विरोध करते और न ही निन्दा ही।

एक बार अनजाने में उनके द्वारा किसी व्यक्ति के लिए निन्दात्मक शब्द निकल गये। जैसे ही वे सावधान हुए, वैसे ही एक पत्थर उठाकर अपने ही सिर पर जोर-जोर से तब तक मारते रहे जब तक कि खून न बहने लगा। इस घाव को ठीक होने में एक महीना लग गया।

इस विचित्र कार्य को योग्य ठहराते हुए उन्होंने कहाः “दुष्ट को सही सजा मिलनी ही चाहिए।”

स्वामी रामकृष्ण को जब गले का कैंसर हो गया था, तब नाग महाशय रामकृष्णदेव की पीड़ा को देख नहीं पाते थे। एक दिन जब नाग महाशय उनको प्रणाम करने गये, तब रामकृष्णदेव ने कहाः”ओह ! तुम आ गये। देखो, डॉक्टर विफल हो गये। क्या तुम मेरा इलाज कर सकते हो?”

दुर्गाचरण एक क्षण के लिए सोचने लगे। फिर रामकृष्णदेव के रोग क अपने शरीर पर लाने के लिए मन ही मन संकल्प किया और बोलेः “जी गुरुदेव ! आपका इलाज मैं जानता हूँ। आपकी कृपा से मैं अभी वह इलाज करता हूँ।”

लेकिन जैसे ही वे परमहंसजी के निकट पहुँचे, रामकृष्ण परमहंस उनक इरादा जान गये। उन्होंने नाग महाशय को हाथ से धक्का देकर दूर कर दिया और कहाः “हाँ, मैं जानता हूँ कि तुममें यह रोग मिटाने की शक्ति है।”

ईश्वर तै गुरु में अधिक, धारै भक्ति सुजान।
बिन गुरुभक्ति प्रवीन हूँ, लहै न आतम ज्ञान।।