आज हम जानेंगे : एक अभागे के जीवन में भी जब सद्गुरु आ जाते हैं तो उसका जीवन कैसे चमक जाता है ? 

संत तुलसीदास जी के पिता का नाम आत्माराम था। कहा जाता है कि वे ज्योतिष विद्या के जानकार थे। ज्योतिष के प्रति उनकी इतनी प्रबल निष्ठा थी कि जब उनके घर में बालक का जन्म हुआ तो उन्होंने उत्सव मनाने के बजाय पहले बालक की जन्मपत्री बनायी।

उसमें उन्होंने देखा कि यह बालक तो बड़ा भाग्यहीन है। यदि इसका परित्याग नहीं किया गया तो इसका दुष्परिणाम इसके माता-पिता को भोगना पड़ सकता है। इसलिए उन्होंने बालक का मुँह देखे बिना ही उसका परित्याग कर दिया।

गोस्वामीजी ने अपनी बाल्यावस्था में बड़े कष्ट, दुर्भाग्य और अपमान का सामना किया। संसार में विरले ही ऐसे बालक होंगे, जिन्हें ऐसी परिस्थिति मिली होगी । आप उस बालक की स्थिति की कल्पना कीजिये, जिसे जन्म देनेवाले माँ-बाप ही नहीं अपना सके ! उसे न तो माता-पिता का प्यार मिला और न किसी अन्य की छाया ही मिली।

भूख से व्याकुल होकर वह जिस दरवाजे पहुँचता, गृहस्वामी को लगता कि ‘सुबह-सुबह यह अशुभ बालक कहाँ से आ गया ! पता नहीं इसका मुँह देखने के बाद आज का दिन कैसा बीतेगा ?’

गोस्वामीजी ने अपनी भूख के विषय में कहा है कि ‘मेरे जीवन में इतना अभाव था कि यदि भिक्षा में चने के चार दाने कोई दे देता था तो लगता था कि मानो चारों फल (अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष) ही प्राप्त हो गये हों । 
बारेतें ललात-बिललात द्वार-द्वार दीन, 
जानत हो चारि फल चारि ही चनकको। 
(कवितावली, उ.कां. : 73) 

समाज जिसे ठुकरा देता है, संत उसे भी स्वीकार कर लेते हैं । संत नरहरिदास नाम के एक महापुरुष ने बालक की ऐसी दयनीय स्थिति देखी तो उसे अपने साथ रख लिया । उन्होंने उसका पालन-पोषण किया और वे नित्य उसे भगवान श्रीराम की कथा सुनाते। वहीं नरहरिदासजी के आश्रम में रहकर गोस्वामीजी ने विद्याध्ययन भी किया । 

गुरुदेव ने उनके सिर पर अपना हाथ रखा और रामनाम की महिमा बतायी । उन्होंने कहा : ‘‘पुत्र ! स्वार्थ और परमार्थ की सिद्धि एकमात्र रामनाम से होती है । तुम प्रभुनाम का ही आश्रय लो।”
 वे नित्य अपने आश्रम में रामायण की कथा सुनाया करते थे ।

यहाँ विचारणीय बात यह है कि जैसे हम यह सोचकर कि ‘नित्य के जीवन में तैरने का कोई उपयोग नहीं है’ तैरने का बचपन में अभ्यास नहीं करते,पर यदि बचपन में तैरना सीख लें तो भले ही वह प्रतिदिन उपयोगी न हो पर संकटकाल में यह कला बड़ी लाभदायी सिद्ध होती है ।  उसी तरह बाल्यावस्था में अच्छे संस्कारों के बीज हमारे अंतःकरण में डाल दिये जायें तो अवसर आने पर वे उदित होकर हमारी सहायता करते हैं, रक्षा करते हैं ।

गोस्वामीजी के जीवन में हमें यही सत्य प्रतिफलित होते हुए दिखायी देता है । कहा जाता है कि तुलसीदासजी को पत्नी ने फटकार दिया और वे संत बन गये, पर यह कहना न तो पूरी तरह न्यायसंगत है और न ही ठीक है ।

संसार में न जाने कितने व्यक्तियों को पारिवारिक जीवन में अकसर भर्त्सना और आलोचना सुनने को मिलती है पर वे सबके-सब गोस्वामी तुलसीदास तो नहीं बन जाते ! 

तुलसीदास इसलिए गोस्वामी तुलसीदास बन गये क्योंकि उनके गुरुदेव ने बाल्यावस्था में उन्हें रामकथा सुनाकर रामभक्ति के संस्कार बीजरूप में उनके अंतःकरण में डाल दिये थे । गुरुदेव ने बार-बार उन्हें जो रामकथा सुनायी थी, वह उनके अंतःकरण में विद्यमान थी ।
                  तदपि कही गुर बारहिं बारा ।

उनके जीवन में ऐसा अवसर आया, लगा कि वे भोग-वासना की नदी में पूरी तरह डूब चुके हैं । पत्नी के प्रति वे इतने आसक्त थे कि एक दिन भी उसके बिना नहीं रह पाते थे । वे पागलों की भाँति उसके पास दौड़े चले जाते हैं, जहाँ उन्हें तीखी फटकार मिलती है । 

उसके बाद उनमें जो परिवर्तन दिखायी देता है, उसे हम पत्नी की फटकार से जोड़ लेते हैं पर वस्तुतः उस फटकार का परिणाम यह होता है कि उनके भीतर गुरुदेव से सुनी रामकथा के बीज से अंकुर फूट पड़ता है ।

ठीक उसी तरह जैसे राख से ढके रहने पर उसके नीचे दबा हुआ अंगारा दिखायी नहीं देता,पर राख के हटते ही वह प्रज्वलित रूप में सामने आ जाता है । 

गोस्वामी जी ने जो बाल्यावस्था में सुना था, उसका बड़ा महत्त्व है । उससे न केवल उन्हें अपितु समाज को भी बड़ा लाभ हुआ और आज भी हो रहा है । अभाव और पीड़ा का अनुभव करनेवाले तुलसीदास जी ने गुरुकृपा और रामनाम के आश्रय से जो प्राप्त किया, उस रामकथारूपी अमृत को मुक्तहस्त से सबमें बाँट दिया । समाज से मिलनेवाले अपमान और कष्टों के विष को भगवान शंकर की तरह पी लिया और हम सबको रामकथा का अमृत पिलाकर धन्य-धन्य कर दिया !

  • सीख : संतों एवं महापुरुषों का स्वभाव ही होता है कि खुद को कितना भी कष्ट हो वह सहकर समाज को परमात्म-प्रेम का अमृत पिलाकर,जीवन को सही दिशा देकर मुक्ति की ओर ले जाते हैं। हमें ऐसे संत सद्गुरु पूज्य बापूजी के रूप में बड़े ही सौभाग्य से मिले हैं इसलिए कैसी भी परिस्थिति आ जाये हम उनकी शरण कभी नहीं छोडेंगे, क्योंकि उनके सिवा कोई भी हमें संसार दुःख से मुक्त नहीं करा सकता ।

    -प्रश्नोत्तरी 
     (1) नरहरिदासजी ने गोस्वामी को कौन-सी शिक्षा दी थी ?
    (2) सबसे बडा मूर्ख कौन है ? (उत्तर : जो सारा समय संसार के पीछे खपा देता है और भगवान के लिए समय नहीं देता ।)

~ बाल संस्कार पाठ्यक्रम : अगस्त – दूसरा सप्ताह