श्रीमद् भागवत [Shrimad Bhagwat] में आता है:

सांकेत्यं पारिहास्यं वा स्तोत्रं हेलनमेव वा ।
वैकुण्ठनामग्रहणमशेषधहरं विटुः ।।
पतितः स्खलितो भग्नः संदष्टस्तप्त आहतः ।
हरिरित्यवशेनाह पुमान्नार्हति यातनाम् ।।

‘भगवान का नाम चाहें जैसे लिया जाए- किसी बात का संकेत करने के लिए, हँसी करने के लिए अथवा तिरस्कारपूर्वक ही क्यों न हो, वह संपूर्ण पापों का नाश करनेवाला होता है । पतन होने पर, गिरने पर, कुछ टूट जाने पर, डँसे जाने पर, बाह्य या आन्तर ताप होने पर और घायल होने पर जो पुरुष विवशता से भी ‘हरि’ ये नाम का उच्चारण करता है, वह यम-यातना के योग्य नहीं । (श्रीमदभागवत: 6.2.14,15)

मंत्र जाप (Mantra Jap । Naam Jap) का प्रभाव सूक्ष्म किन्तु गहरा होता है ।

जब लक्ष्मण जी ने मंत्र जप कर सीता जी की कुटीर के चारों तरफ भूमि पर एक रेखा खींच दी तो लंकाधिपति रावण तक उस लक्ष्मण रेखा को न लाँघ सका । हालाँकि रावण मायावी विद्याओं का जानकार था, किंतु ज्यों ही वह रेखा को लाँघने की इच्छा करता त्यों ही उसके सारे शरीर में जलन होने लगती थी ।

मंत्रजप (Mantra Jap) से पुराने संस्कार हटते जाते हैं, जापक में सौम्यता आती जाती है और उसका आत्मिक बल बढ़ता जाता है ।

मंत्रजप (Mantra Jap) से चित्त पावन होने लगता है । रक्त के कण पवित्र होने लगते हैं । दुःख, चिंता, भय, शोक, रोग आदि निवृत होने लगते हैं । सुख-समृद्धि और सफलता की प्राप्ति में मदद मिलने लगती है ।

जैसे, ध्वनि-तरंगें दूर-दूर जाती हैं, ऐसे ही नाम जप की तरंगें हमारे अंतर्मन में गहरे उतर जाती हैं तथा पिछले कई जन्मों के पाप मिटा देती हैं । इससे हमारे अंदर शक्ति-सामर्थ्य प्रकट होने लगता है और बुद्धि का विकास होने लगता है । अधिक मंत्र जप से दूरदर्शन, दूरश्रवण आदि सिद्धयाँ आने लगती हैं, किन्तु साधक को चाहिए कि इन सिद्धियों के चक्कर में न पड़े, वरन् अंतिम लक्ष्य परमात्म-प्राप्ति में ही निरंतर संलग्न रहे ।