गोधरा (गुजरात) में पांडुरंग (pandurang)  नाम का एक बड़ा ही कुशाग्र और सुदृढ़ विद्यार्थी था, जो दूसरों की मदद के लिए सदैव तत्पर रहता था । उसकी माता रुक्मिणी उसे ‘बाबू’ कहकर पुकारती थीं । वह बचपन से ही लौकिक पढ़ाई के साथ अपने जीवन के वास्तविक उद्देश्य परमात्मप्राप्ति के प्रति खूब जागरूक था । वह प्रसन्नमुख, सूझबूझ का धनी और एक अच्छा नाटककार भी था ।

उसे संगीत का बड़ा शौक था । वह बाँसुरी बहुत सुंदर व सुरीली बजाता था जिसे सुननेवाले मंत्रमुग्ध हो जाते और रोज सुनने की अभिलाषा रखते थे । वह रोज शाम को आधा घंटा बंसी बजाता और फिर घूमने जाता था ।

एक दिन किसी बेचैनी के कारण उसने बंसी नहीं बजायी और सीधा घूमने निकल पड़ा । सामने टीले के ऊपर एक किशोरी बैठी थी । उसने पूछा :- ‘‘आज आपने बंसी क्यों नहीं बजायी ???? 
पांडुरंग एकदम चौंक गया,उसने पूछा :- ‘‘तुमने मुझसे यह किस कारण पूछा ? ‘‘

मुझे आपकी बंसी की धुन बहुत अच्छी लगती है । हररोज सुनने के लिए मैं इस समय राह देखते हुए बैठती हूँ, उसके बाद घर जाती हूँ ।

पांडुरंग ने महसूस किया कि उसका यह शौक उसकी एक आदत बन रहा है और किसी के लिए लगाव का कारण ।

जिसे बाहरी जगत में नाम कमाना हो, संगीत के जगत में प्रसिद्ध होने की महत्त्वाकांक्षा हो अथवा जो कामी हो….. ऐसा कोई व्यक्ति भले ऐसे प्रसंगों से खुश हो जाय किंतु जिन्हें भीतर के ‘सोऽहं’ के संगीत का रस वास्तव में मिल गया हो वे राही अपने लक्ष्य से कभी भटक नहीं सकते । उनका तो यह सिद्धांत होता है कि ईश्वर के लिए संसार का सब कुछ छोड़ देना पड़े तो छोड़ देंगे लेकिन संसारी उपलब्धि और वाहवाही के लिए ईश्वर को कभी नहीं छोडेंगे ।

पांडुरंग को लगा ‘ जो लगाव, प्रेम परमात्मा से करना चाहिए, वह इस हाड-मांस के नश्वर शरीर या किसी क्षणिक आनंददायी सुर-ताल में करके कोई उलझ जाय, यह उस व्यक्ति के लिए और खुद मेरे लिए भी बहुत दुःखदायी है । ‘

दूसरे ही क्षण उसने अपनी प्यारी बाँसुरी उठायी और एक बड़ा पत्थर ढूँढ लिया । उस किशोरी ने देखा कि जिस बाँसुरी ने उसे मोहित कर रखा था, उसके टुकड़े -टुकड़े हो गये हैं और कुएँ के पानी की सतह पर वह तैर रहे हैं ।

“आज से वह बंसी कभी नहीं बजेगी ! ” पांडुरंग के मुँह से ये उद्गार सुन सभी स्तब्ध थे ।
जीवन के छोटे-से-छोटे कार्य में भी हमारी सावधानी होनी चाहिए । सावधानी ही साधना है । तटस्थता से नजर रखनी चाहिए कि यह कार्य हमें किस मार्ग पर ले जा रहा है और इसका अंतिम परिणाम क्या होगा ????

✍🏻बाल्यकाल से ही स्व-नियंत्रण, इन्द्रिय-संयम आदि गुणों की मूर्ति पांडुरंग आगे चलकर अपने स्वरूप ज्ञान को उपलब्ध हुए और संत रंग अवधूत महाराज के नाम से सुविख्यात-सुसज्जनों के लिए आत्मशांति का द्वार हुए ।