[Adil Shah And Shivaji Maharaj Story]

पूज्य संत श्री आशारामजी बापूजी

मुगल सरदार आदिलशाह व कुतुबशाह को अपने पद और धन का बड़ा अहंकार था। वे इस मद में रहते थे कि हम तो धन से किसी को भी अपने पक्ष में कर सकते हैं।

एक बार आदिलशाह ने शिवाजी महाराज के निजी पत्र-लेखक बालाजी को अपने पक्ष में करना चाहा। उन्होंने सोचा कि ऐसा बुद्धिशाली लेखक तो हमारे पास होना चाहिए। जिसके अक्षर सुंदर हैं,लिखने का ढंग प्रभावशाली है तथा लिखते समय कभी भी कोई छोटा-बड़ा मुद्दा छूटता नहीं है।’

आदिलशाह ने एक दूत बालाजी के घर में भेजा। दूत ने कहा :”बालाजी साहब ! मैं आपके लिए बादशाह आदिलशाह का निमंत्रण लाया हूँ। वे आपकी लेखन शैली पर इतने फ़िदा हैं कि आपका लिखा हुआ पत्र बार-बार पढ़वाते हैं,कभी स्वयं पढ़ते हैं और आपकी खूब तारीफ करते हैं। वे आपसे मिलना चाहते हैं,आपका सत्कार करना चाहते हैं।”

बालाजी ने कहा :”मैं तो एक छोटा-सा लेखक हूँ। जो हमारे महाराज बताते हैं,वही लिखता हूँ। आपके बादशाह के पास आना तो मेरे लिए असंभव है। मुझे सदैव छत्रपति शिवाजी महाराज की सेवा में उनके साथ ही रहना होता है।”

आदिलशाह का दूत निराश हो चला गया। थोड़े दिन बाद वह सुवर्ण के कंगन तथा कीमती पोशाक लेकर फिर बालाजी के पास  पहुँचा। बालाजी ने कहा :”मुझे आपके सम्मान की आवश्यकता नहीं है।”

दूसरे दिन दूत शिवाजी के दरबार में पहुँचा और उसने शिवाजी के सामने अपना मंतव्य प्रकट किया। शिवाजी ने कहा :”हमारे दरबार के लोगों की कीर्ति दूर-दूर तक पहुँच रही है,यह हमारे लिए ख़ुशी की बात है। आप बालाजी को जो कुछ देना चाहें,अवश्य दें। मेरी अनुमति है। यहीं सबके सामने सम्मान करें।”

राजदूत सुवर्ण के कंगन व जरी की मखमली पोशाक लेकर जब बालाजी के निकट गया तो बालाजी का मुखमंडल क्रोध से लाल हो गया। उन्होंने वस्तुओं को हाथ में लेकर गरजते हुए कहा :”मैं यह सब स्वीकार नहीं कर सकता। हमारे पुण्य प्रतापी महाराज के प्रेम भरे शब्द ही हमारे लिए सबसे बड़े सम्मान हैं। दूसरों की भेजी हुई ऐसी वस्तुओं को हम तुच्छ ही नहीं,हेय और निंदनीय मानते हैं।”

शिवाजी के सिंहासन के बगल में मशाल लिए मशालची खड़ा था। बालाजी ने वस्त्र मशालची को देते हुए कहा :”ये तुम्हारी मशाल के काम आयेंगे। इन्हें  फाड़-फाड़कर प्रतिदिन जलाया करो। आततायी मुगल शासन की भी हमें ऐसे धज्जियाँ उड़ानी हैं और ये सुवर्ण के कंगन मैं अपने महाराज के कोषाध्यक्ष के पास जमा कर देता हूँ।”

शांत,सौम्य बालाजी का उग्र रूप देखकर सारा दरबार स्तंभित हो उठा। शिवाजी महाराज प्रसन्न होकर बोले :”माँ भवानी की कृपा है,तभी तो ऐसे एकनिष्ठ,
ईमानदार पुण्यात्मा हमें सहयोगी के रूप में प्राप्त हुए हैं।”

राजदूत ने आदिलशाह के पास पहुँचकर उससे कहा :”जहाँपनाह ! शिवाजी के पास सब सेवक विश्वास पात्र हैं । वे कभी ख़रीदे नहीं जा सकते । जिस राजा के सेवक इतने देशभक्त,
एकनिष्ठ होते हैं, वे गुण-पारखी,सूक्ष्म मति-सम्पन्न राजा सदा अजेय रहते हैं।”

~लोक कल्याण सेतु/फ़रवरी-मार्च २००६