यह आसन करना कठिन है इसलिए इसे उग्रासन कहा जाता है । उग्र का अर्थ है शिव । भगवान शिव संहारकत्र्ता हैं अतः उग्र या भयंकर हैं । शिवसंहिता में भगवान शिव ने मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करते हुए कहा है : ‘‘यह आसन सर्वश्रेष्ठ आसन है । इसको प्रयत्नपूर्वक गुप्त रखें । सिर्फ अधिकारियों को ही इसका रहस्य बतायें ।
ध्यान मणिपुर चक्र में । श्वास प्रथम स्थिति में पूरक और दूसरी स्थिति में रेचक और फिर बहिर्कुम्भक ।
पादपश्चिमोत्तानासन के सम्यक् अभ्यास से सुषुम्ना का मुख खुल जाता है और प्राण मेरुदण्ड के मार्ग में गमन करता है, फलतः बिन्दु को जीत सकते हैं । बिन्दु को जीते बिना न समाधि सिद्ध होती है न वायु स्थिर होता है न चित्त शान्त होता है । जो स्त्री-पुरुष कामविकार से अत्यंत पीिडत हों उन्हें इस आसन का अभ्यास करना चाहिए । इससे शारीरिक एवं मानसिक विकार दब जाते हैं । उदर, छाती और मेरुदण्ड को उत्तम कसरत मिलती है अतः वे अधिक कार्यक्षम बनते हैं । हाथ, पैर तथा अन्य अंगों के सन्धिस्थान मजबूत बनते हैं । शरीर के सब तन्त्र बराबर कार्यशील होते हैं । रोग मात्र का नाश होकर स्वास्थ्य का साम्राज्य स्थापित होता है । इस आसन के अभ्यास से मन्दाग्नि, मलावरोध, अजीर्ण, उदररोग, कृमिविकार, सर्दी, खाँसी, वातविकार, कमर का दर्द, हिचकी, कोढ, मूत्ररोग, मधुप्रमेह, पैर के रोग, स्वप्नदोष, वीर्यविकार, रक्तविकार, एपेन्डीसाइटिस, अण्डवृद्धि, पाण्डुरोग, अनिद्रा, दमा, खट्टी डकारें आना, ज्ञानतन्तु की दुर्बलता, बवासीर, नल की सूजन, गर्भाशय के रोग, अनियमित तथा कष्टदायक मासिक, ब्नध्यत्व, प्रदर, नपुंसकता, रक्तपित्त, सिरोवेदना, बौनापन आदि अनेक रोग दूर होते हैं । जठराग्नि प्रदीप्त होती है । कफ और चरबी नष्ट होते हैं । पेट पतला बनता है । शिवसंहिता में कहा है कि इस आसन से वायूद्दीपन होता है और वह मृत्यु का नाश करता है । इस आसन से शरीर का कद बढता है। शरीर में अधिक स्थूलता हो तो कम होती है । दुर्बलता हो तो दूर होकर शरीर सामान्य तन्दुरुस्त अवस्था में आ जाता है । नाडीसंस्थान में स्थिरता आती है । मानसिक शान्ति प्राप्त होती है । चिन्ता एवं उत्तेजना शान्त करने के लिए यह आसन उत्तम है । पीठ और मेरुदण्ड पर qखचाव आने से वे दोनों विकसित होते हैं । फलतः शरीर के तमाम अवयवों पर अधिकार स्थापित होता है । सब आसनों में यह आसन सर्वप्रधान है । इसके अभ्यास से कायाकल्प (परिवर्तन) हो जाता है । यह आसन भगवान शिव को बहुत प्यारा है । उनकी आज्ञा से योगी गोरखनाथ ने लोककल्याण हेतु इसका प्रचार किया है । आप इस आसन के अद्भुत लाभों से लाभान्वित हों और दूसरों को भी सिखायें। पादपश्चिमोत्तानासन पूज्यपाद संत श्री आसारामजी बापू को भी बहुत प्यारा है । इससे पूज्यश्री को बहुत लाभ हुए हैं । अभी भी यह आसन उनकी आरोग्यनिधि का रक्षक बना हुआ है । पाठक भाइयों ! आप अवश्य इस आसन का लाभ लेना । प्रारम्भ के चार-पाँच दिन जरा कठिन लगेगा ।
बिछे हुए आसन पर बैठ जायें । दोनों पैरों को लम्बे फैला दें। दोनों पैरों की जंघा, घुटने, पंजे परस्पर मिले रहें और जमीन के साथ लगे रहें । पैरों की अंगुलियाँ घुटनों की तरफ झुकी हुई रहें । अब दोनों हाथ लम्बे करें । दाहिने हाथ की तर्जनी और अँगूठे से दाहिने पैर का अंगूठा और बायें हाथ की तर्जनी और अँगूठे से बायें पैर का अँगूठा पकडें । अब रेचक करते-करते नीचे झुकें और सिर को दोनों घुटनों के मध्य में रखें । ललाट घुटने को स्पर्श करे और घुटने जमीन से लगे रहें। हाथ की दोनों कुहनियाँ घुटनों के पास जमीन से लगें । रेचक पूरा होने पर कुम्भक करें । दृष्टि एवं चित्तवृत्ति को मणिपुर चक्र में स्थापित करें। प्रारम्भ में आधा मिनट करके क्रमशः १५ मिनट तक यह आसन करने का अभ्यास बढाना चाहिए । प्रथम दो-चार दिन कठिन लगेगा लेकिन अभ्यास हो जाने पर यह आसन सरल हो जायेगा ।