वर्तमान युग में शिक्षा-प्रणाली और शिक्षकों की भूमिका
Importance of Teacher
- शिक्षक साधारण नहीं होता है, सृजन और प्रलय उसकी गोद में खेलते हैं । आचार्य चाणक्य ने एक नन्हे से बच्चे को ऐसी शिक्षा, ऐसे संस्कार दिये कि आगे चलकर वह चक्रवर्ती सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य बना और उसने अखंड भारत के निर्माण का कार्य किया । ऐसे असंख्य उदाहरण हैं इतिहास में ।
- तात्पर्य यह है कि शिक्षक के जीवन एवं शिक्षाओं का विद्यार्थियों पर बड़ा प्रभाव पड़ता है । शिक्षक ऐसा न समझें कि केवल पुस्तकों में लिखी, आजीविका चलाने की शिक्षा देकर हमने अपना कर्तव्य पूरा कर लिया । लौकिक विद्या के साथ-साथ उन्हें चरित्र-निर्माण की, आदर्श मानव बनने की शिक्षा भी दीजिये । आपकी इस सेवा से भारत का भविष्य उज्ज्वल बनेगा तो आपके द्वारा सुसंस्कारी बालक बनाने की राष्ट्र-सेवा, मानवसेवा हो जायेगी ।
- मुंडकोपनिषद् के अनुसार विद्या दो प्रकार की होती है : अपरा विद्या और परा विद्या । संसार के बारे में हम जो कुछ भी जानते हैं, वह अपरा विद्या है । जैसे भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, जीव विज्ञान, इतिहास आदि । दूसरी विद्या है आत्मा-परमात्मा का ज्ञान, जो कि देश-काल-कारण से परे है, इसे परा विद्या कहते हैं ।
- प्राचीन काल में हमारे शिक्षा-संस्थानों में, जिन्हें हम ‘गुरुकुल’ कहते थे, ये दोनों प्रकार की विद्याएँ शिष्य को दी जाती थीं । किंतु आजकल के अधिकांश शिक्षा-संस्थानों में केवल अपरा (लौकिक) विद्या ही दी जाती है, परा (अलौकिक) विद्या को कोई स्थान ही नहीं दिया जाता ।
- आत्माभिव्यक्ति एवं आत्मानुभूति की पूर्णतः उपेक्षा की गयी है । यही कारण है कि केवल आधुनिक शिक्षा को ही केन्द्र बनाने वाले समृद्ध राष्ट्रों की अति दयनीय स्थिति है और उनके विद्यार्थियों में अशांति, ईर्ष्या, तनाव, चिंता, अस्वस्थता आदि कई दुर्गुण-समस्याएँ बाल्यकाल से ही पनप रही हैं ।