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Happy Teachers
Day 2023

वर्तमान युग में शिक्षा-प्रणाली और शिक्षकों की भूमिका
Importance of Teacher

  • शिक्षक साधारण नहीं होता है, सृजन और प्रलय उसकी गोद में खेलते हैं । आचार्य चाणक्य ने एक नन्हे से बच्चे को ऐसी शिक्षा, ऐसे संस्कार दिये कि आगे चलकर वह चक्रवर्ती सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य बना और उसने अखंड भारत के निर्माण का कार्य किया । ऐसे असंख्य उदाहरण हैं इतिहास में ।
  • तात्पर्य यह है कि शिक्षक के जीवन एवं शिक्षाओं का विद्यार्थियों पर बड़ा प्रभाव पड़ता है । शिक्षक ऐसा न समझें कि केवल पुस्तकों में लिखी, आजीविका चलाने की शिक्षा देकर हमने अपना कर्तव्य पूरा कर लिया । लौकिक विद्या के साथ-साथ उन्हें चरित्र-निर्माण की, आदर्श मानव बनने की शिक्षा भी दीजिये । आपकी इस सेवा से भारत का भविष्य उज्ज्वल बनेगा तो आपके द्वारा सुसंस्कारी बालक बनाने की राष्ट्र-सेवा, मानवसेवा हो जायेगी ।
  • मुंडकोपनिषद् के अनुसार विद्या दो प्रकार की होती है : अपरा विद्या और परा विद्या । संसार के बारे में हम जो कुछ भी जानते हैं, वह अपरा विद्या है । जैसे भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, जीव विज्ञान, इतिहास आदि । दूसरी विद्या है आत्मा-परमात्मा का ज्ञान, जो कि देश-काल-कारण से परे है, इसे परा विद्या कहते हैं ।
  • प्राचीन काल में हमारे शिक्षा-संस्थानों में, जिन्हें हम ‘गुरुकुल’ कहते थे, ये दोनों प्रकार की विद्याएँ शिष्य को दी जाती थीं । किंतु आजकल के अधिकांश शिक्षा-संस्थानों में केवल अपरा (लौकिक) विद्या ही दी जाती है, परा (अलौकिक) विद्या को कोई स्थान ही नहीं दिया जाता ।
  • आत्माभिव्यक्ति एवं आत्मानुभूति की पूर्णतः उपेक्षा की गयी है । यही कारण है कि केवल आधुनिक शिक्षा को ही केन्द्र बनाने वाले समृद्ध राष्ट्रों की अति दयनीय स्थिति है और उनके विद्यार्थियों में अशांति, ईर्ष्या, तनाव, चिंता, अस्वस्थता आदि कई दुर्गुण-समस्याएँ बाल्यकाल से ही पनप रही हैं ।

विकसित राष्ट्रों की दयनीय स्थिति

  • आज आध्यात्मिकता से दूर रहने वाले सभी देशों में मानसिक अशांति व्याप्त है । युनेस्को (संयुक्त राष्ट्र की विशेष संस्था) इस विषय में सर्वाधिक चिंतित है क्योंकि नयी पीढ़ी ने ‘जानने’ के बदले ‘करने’ की शिक्षा अपनायी है । इसलिए नयी पीढ़ी नशा, आत्महत्या आदि समस्याओं और एड्स जैसी बीमारियों की चपेट में आ रही है ।
  • सोचा जाता है कि ‘अधिक सम्पत्ति अर्थात् अधिक सुख’ किंतु सांख्यकीय आँकड़ों से स्पष्ट होता है कि सच्चाई इसके ठीक विपरीत है । अमेरिका, जापान, स्वीडन आदि विकसित देशों में प्रति व्यक्ति आय बहुत अधिक है किंतु वे सुख में नहीं बल्कि तनाव और आत्महत्या में सबसे आगे हैं ।
  • युनेस्को के अनुसार ‘अमेरिका, जापान और स्वीडन में युवावर्ग में 54% मृत्यु आत्महत्या से होती है ।’
  • जापान के स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार ‘42 और इससे अधिक आयु के 44% जापानी मानसिक विक्षिप्तता के शिकार हैं ।’

ऐसे शिक्षकों और विद्यार्थियों की जय हो...

हमारी प्राचीन गुरुकुल शिक्षा प्रणाली के साथ आधुनिक शिक्षा प्रणाली की तुलना करेंगे तो दोनों के बीच बहुत बड़ी खाई दिखाई पड़ेगी। गुरुकुल में प्रत्येक विद्यार्थी नैतिक शिक्षा प्राप्त करता था। प्राचीन संस्कृति का यह महत्वपूर्ण अंग था। प्रत्येक विद्यार्थी में विनम्रता आत्म-संयम, आज्ञा-पालन, सेवा और त्याग की भावना, सद् व्यवहार, सज्जनता, शिष्टता तथा अंततः परन्तु अत्यंत प्रमुख रूप से आत्मज्ञान की जिज्ञासा रहती थी। आधुनिक शिक्षा प्रणाली में शिक्षा का नैतिक पक्ष सम्पूर्णतः भुला दिया गया है।

शिक्षकों की भूमिका
Role of Teacher's

हमारी प्राचीन गुरुकुल शिक्षा प्रणाली के साथ आधुनिक शिक्षा प्रणाली की तुलना करेंगे तो दोनों के बीच बहुत बड़ी खाई दिखाई पड़ेगी। गुरुकुल में प्रत्येक विद्यार्थी नैतिक शिक्षा प्राप्त करता था। प्राचीन संस्कृति का यह महत्वपूर्ण अंग था। प्रत्येक विद्यार्थी में विनम्रता आत्मसंयम, आजा-पालन, सेवा और त्याग भावना, सद्व्यवहार, सज्जनता, शिष्टता तथा अंततः बल्कि अत्यंत प्रमुख रूप से आत्मज्ञान की जिज्ञासा रहती थी। शिक्षा आधुनिक प्रणाली में शिक्षा का नैतिक पक्ष सम्पूर्णतः भुला दिया गया है।

अतः राष्ट्र-निर्माण के लिए शिक्षकों का कर्तव्य है कि वे विद्यार्थियों को ऐहिक शिक्षा के साथ यौगिक व आध्यात्मिक शिक्षा से भी सुसम्पन्न करें । इससे बच्चों में तीव्र बुद्धि के साथ चारित्रिक व नैतिक गुणों का विकास होगा और तभी विश्वशांति एवं संगठित, समृद्ध राष्ट्र-निर्माण के द्वार खुल पायेंगे । इसके लिए शिक्षकों को भी इन विद्याओं से सुसम्पन्न होना होगा, तभी वे बच्चों को सही शिक्षा दे पायेंगे । अतः शिक्षकों को किन्हीं हयात आत्मानुभवनिष्ठ आध्यात्मिक गुरु से मार्गदर्शन लेना चाहिए और बच्चों को भी इसके लिए प्रोत्साहित करना चाहिए ।

शिक्षा-प्रणाली की भूमिका
Importance of Education

  • तनाव व अशांति भरे वर्तमान परिदृश्य को देखते हुए समय की माँग है ‘गुरुकुल शिक्षा-पद्धति की पुनर्स्थापना’, जिससे आजीविका चलाने में उपयोगी विद्या के साथ-साथ विद्यार्थियों को संयम-सदाचार, सच्चाई, परदुःखकातरता आदि सद्गुण पाने की एवं ईश्वरप्राप्ति की विद्या भी मिले, उनके जीवन में उद्यम, साहस, धैर्य, बुद्धि, शक्ति, पराक्रम जैसे गुणों का सहज में विकास हो और किसी भी प्रकार के छल-कपट तथा मानसिक तनाव के बिना उन्हें हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त हो ।
  • पूज्य बापूजी कहते हैं कि ‘‘लौकिक विद्या तो पा ली लेकिन योगविद्या और आत्मविद्या नहीं पायी तो लौकिक चीजें बहुत मिलेंगी लेकिन भीतर अशांति होगी, दुराचार होगा ।
  • लौकिक विद्या को पाकर थोड़ा कुछ सीख लिया, यहाँ तक कि बम बनाना भी सीख गये फिर भी हृदय में अशांति की आग जलती रहेगी ।
  • जो लोग योगविद्या और आत्मविद्या का अभ्यास करते हैं, सुबह के समय थोड़ा योग व ध्यान का अभ्यास करते हैं वे लौकिक विद्या में भी शीघ्रता से सफल होते हैं, लौकिक विद्या के भी अच्छे-अच्छे रहस्य वे खोज सकते हैं ।
  • स्वामी विवेकानंद लौकिक विद्या तो पढ़े थे, साथ ही उन्होंने आत्मविद्या का ज्ञान भी प्राप्त किया था । अतः ऐहिक विद्या को अगर योग और आत्म विद्या का सम्पुट दिया जाय तो विद्यार्थी ओजस्वी-तेजस्वी बनता है । योगविद्या और आत्मविद्या को भूलकर सिर्फ ऐहिक विद्या में ही पूरी तरह से गर्क हो जाना मानो अपने जीवन का अनादर करना है ।’’
  • इन्हीं उद्देश्यों से पूज्य बापूजी ने गुरुकुल शिक्षा-प्रणाली पुनः आरम्भ की । इन गुरुकुलों में विद्यार्थी ऐहिक सफलता की बुलंदियाँ तो छूते ही हैं, साथ ही योग और आत्म विद्या का भी ज्ञान पाकर अपना इहलोक और परलोक सँवार रहे हैं ।

शिक्षकों का कर्तव्य
Teacher's Responsibility

  • विद्यार्थियों को सदाचार के मार्ग में प्रशिक्षित करने और उनका चरित्र सही ढंग से मोड़ने में स्कूल तथा कॉलेजों के शिक्षकों और प्रोफेसरों पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी आती है ।
  • उनको स्वयं पूर्ण सदाचारी और पवित्र होना चाहिए । उनमें पूर्णता होनी चाहिए। अन्यथा वैसा ही होगा जैसा एक अंधा दूसरे अंधे को रास्ता दिखाये ।
  • शिक्षक- वृत्ति अपनाने से पहले प्रत्येक शिक्षक को शिक्षा के प्रति अपनी स्थिति की पूरी जिम्मेदारी जान लेनी चाहिए। केवल शुष्क विषयों को लेकर व्याख्यान देने की कला सीखने से ही काम नहीं चलेगा। यही प्राध्यापक की पूरी योग्यता नहीं है।
  • संसार का भावी भाग्य पूर्णतया शिक्षकों और विद्यार्थियों पर निर्भर है। यदि शिक्षक अपने विद्यार्थियों को ठीक ढंग से सही दिशा में, धार्मिक आवृत्ति में शिक्षा दें तो संसार में अच्छे नागरिक, योगी और जीवन्मुक्त भर जायेंगे, जो सर्वत्र प्रकाश, शांति, सुख और आनंद बिखेर देंगे ।
  • शिक्षकों और प्राध्यापकों  ! जागो ! उठो । विद्यार्थियों को सदाचार और धार्मिकता की शिक्षा दो । उन्हें सच्चे ब्रह्मचारी बनाओ। इस दिव्य धर्म की अवहेलना न करें। इस पवित्र काम के लिए नैतिकता की दृष्टि से तुम्हीं लोग जिम्मेदार हो। यह तुम लोगों का योग है। सच्ची निष्ठा से यदि इस काम को अपने हाथ में लेते हो तो तुम्हें भी आत्मज्ञान प्राप्त होगा। सच्चे रहो, निष्ठावान रहो।
  • आँखें खोलो। धन्य है वह जो वास्तव में अपने विद्यार्थियों को संयमी, सदाचारी और नैष्ठिक ब्रह्मचारी बनाने में सफल है। उन पर भगवान का आशीर्वाद रहे । ऐसे शिक्षकों, प्राध्यापकों और विद्यार्थियों की जय हो!

शिक्षक दिवस निमित्त बाल संस्कार शिक्षकों के लिए के लिये पूज्य बापूजी का संदेश..
Message for Bal Sanskar Teachers from Pujya Bapuji

कई बच्चे-बच्चियाँ आते हैं, कई साधक आते हैं और बोलते हैं कि ‘बापूजी ! बहुत अच्छा लगता है, बहुत आनंद आता है… आशीर्वाद दीजिये कि हम जिंदगी भर बाल संस्कार केंद्र चलायें, खूब चलाएं…’

इन शिक्षकों को बच्चे तो कुछ देते नहीं तथा बापू भी पगार देते नहीं और कभी कोई लोग कुछ-का-कुछ भी बोलें तब भी फिक्र नहीं… और फिर भी इनको दैवी सेवाकार्य अच्छा लग रहा है तो इसका सीधा अर्थ है कि इनके हृदय में वासना निवृत्ति से भगवान की, आत्मा के आनंद की झलकें शुरू हुई हैं और एक दिन आनंदस्वरूप में बुद्धि की स्थिति भी हो जायेगी।

कई बच्चे-बच्चियाँ आते हैं, कई साधक आते हैं और बोलते हैं कि ‘बापूजी ! बहुत अच्छा लगता है, बहुत आनंद आता है… आशीर्वाद दीजिये कि हम जिंदगी भर बाल संस्कार केंद्र चलायें, खूब चलाएं…’

इन शिक्षकों को बच्चे तो कुछ देते नहीं तथा बापू भी पगार देते नहीं और कभी कोई लोग कुछ-का-कुछ भी बोलें तब भी फिक्र नहीं… और फिर भी इनको दैवी सेवाकार्य अच्छा लग रहा है तो इसका सीधा अर्थ है कि इनके हृदय में वासना निवृत्ति से भगवान की, आत्मा के आनंद की झलकें शुरू हुई हैं और एक दिन आनंदस्वरूप में बुद्धि की स्थिति भी हो जायेगी।

शिक्षा का व्यावहारिक एवं वास्तविक उद्देश्य

- डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन

  • शिक्षा का लक्ष्य हमें उच्च जीवन की प्राप्ति कराना है। लोगों ने उसकी अनेक प्रकार की परिभाषाएँ दी हैं। कुछ लोगों ने उसे व्यक्ति का परिस्थिति के साथ सामंजस्य स्थापित करने का साधन बनना बताया है। कुछ अन्य ने व्यक्ति को आर्थिक व्यवस्था में यथोचित स्थान दिलाना अथवा श्रेष्ठ नागरिक बनने के लिए तैयार करना यह शिक्षा का लक्ष्य बताया है।
  • ये सब अपना महत्व रखते हैं पर शिक्षा का सबसे अधिक महत्वपूर्ण लक्ष्य तो उस दूसरे लोक का दर्शन कराना है जो हमारा लोक है, जो अदृश्य तथा अस्पृश्य है, जो देश तथा काल से परे है। देश एवं काल के भौतिक जगत में हमने जन्म लिया है। शिक्षा को चाहिए कि हमें दूसरा जन्म दे।
  • ऐसा करना हमारी प्रकृति के प्रतिकूल किसी विजातीय द्रव्य को हमारे ऊपर जबरदस्ती लादना नहीं है। वह तो सिर्फ उसी को प्राप्त करने में हमारी सहायता करना है जो पहले से ही हमारे भीतर मौजूद है। हम पत्थर को निचोड़ के खून निकालने का प्रयास नहीं कर रहे हैं।
  • अमरता और मृत्यु दोनों का ही निवास मनुष्य के हृदय में है। सांसारिक तड़क-भड़क एवं कामोन्माद में पड़ के हम मृत्यु की ओर चले जाते हैं और सत्य (ईश्वर) की सेवा करके हम अमर जीवन प्राप्त कर लेते हैं। उसी सत्य की ओर बढ़ने में हमारी सहायता करना शिक्षा का व्यावहारिक एवं वास्तविक उद्देश्य है।

सा विद्या या विमुक्तये।

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Teachers Day Special
गुरुकुल-पद्धति की शिक्षा एवं गुरु के सम्मान से होता पूरा लाभ