बच्चों को माता-पिता कैसे बनायें महान | Parenting tips hindi
बालक सुधरे तो जग सुधरा । बालक-बालिकाएँ घर, समाज व देश की धरोहर हैं । इसलिए बचपन से ही उनके जीवन पर विशेष ध्यान देना चाहिए । यदि बचपन से ही उनके रहन-सहन, खान-पान, बोल-चाल,
बालक सुधरे तो जग सुधरा । बालक-बालिकाएँ घर, समाज व देश की धरोहर हैं । इसलिए बचपन से ही उनके जीवन पर विशेष ध्यान देना चाहिए । यदि बचपन से ही उनके रहन-सहन, खान-पान, बोल-चाल,
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः। चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशोबलम्।। “जो व्यक्ति माता-पिता एवं गुरूजनों को प्रणाम करते हैं और उनकी सेवा करते हैं उनकी आयु, विद्या, यश तथा बल – चार पदार्थ बढ़ते हैं।”
आजकल सभी जगह शादी-पार्टियों में खड़े होकर भोजन करने का रिवाज चल पडा है लेकिन हमारे शास्त्र कहते हैं कि हमें नीचे बैठकर ही भोजन करना चाहिए । खड़े होकर भोजन करने से जो हानियाँ
अच्छे बालक की पहचान, बतलाते सद्गुरु भगवान । सुबह ब्राह्ममुहूर्त में उठता, करता परमात्मा का ध्यान । करदर्शन कर,धरती माँ के, नित करता चरणों में प्रणाम। नित्य क्रिया से निवृत्त होकर, नित करता ऋषि-स्नान। पूर्वाभिमुख
बच्चे जैसा देखते हैं, जैसा सुनते हैं देर-सवेर वैसी दिशा में जाते हैं । गंदी फिल्में देखकर हमारे ऊँचे संस्कार वाले बच्चों के जीवन का ह्रास न हो और उनमें अच्छे संस्कार पड़ें इस हेतु
मंत्रदीक्षा के समय विद्यार्थियों को सारस्वत्य मंत्र और अन्य दीक्षार्थियों को वैदिक मंत्र की दीक्षा देते हैं। सारस्वत्य मंत्र के जप से बुद्धि कुशाग्र बनती है और विद्यार्थी मेधावी होता है। सारस्वत्य मंत्र की दीक्षा
ललाट पर दो भौहों के बीच विचारशक्ति का केन्द्र है जिसे योगी लोग आज्ञाशक्ति का केन्द्र कहते हैं। इसे शिवने अर्थात कल्याणकारी विचारों का केंद्र भी कहते हैं। वहाँ पर चन्दन का तिलक या सिंदूर आदि का तिलक विचारशक्ति को, आज्ञाशक्ति को विकसित करता है।
एक बार नारद जी ने भगवान ब्रह्मा जी से कहाः
“ऐसा कोई उपाय बतलाइए, जिससे मैं विकराल कलिकाल के काल जाल में न फँसूं।”
इसके उत्तर में ब्रह्माजी ने कहाः
आदिपुरुषस्य नारायणस्य नामोच्चारणमात्रेण निर्धूत कलिर्भवति।
कबीर जी ने सोचा कि गुरू किये बिना काम बनेगा नहीं।
उस समय काशी में रामानन्द नाम के संत बड़े उच्च कोटि के महापुरूष माने जाते थे। कबीर जी ने उनके आश्रम के मुख्य द्वार पर आकर विनती कीः “मुझे गुरुजी के दर्शन कराओ।”उस समय जात-पाँत का बड़ा आग्रह रहता था।
श्री रामचरितमानस में आता हैः
गुरू बिन भवनिधि तरहिं न कोई। जौं बिरंचि संकर सम होई।।
भले ही कोई भगवान शंकर या ब्रह्मा जी के समान ही क्यों न हो किन्तु गुरू के बिना भवसागर नहीं तर सकता।