Jab Devraj Indra bhi Geeta Gyan Ko Dekhkar Dang rahe gaye
  • प्रभु सौ-सौ अश्वमेध यज्ञ करने के बाद भी कोई विरला ही इन्द्रपद को पाता है । इस आदमी ने न तो अश्वमेघ किये, न दान पुण्य किया, न लाख-दो लाख पेड़-पौधे लगाये, न व्रत-उपवास किये, न हजारों भूखों को भोजन कराया है फिर यह इन्द्रपद का अधिकारी कैसे हो गया ?”
  • एक बार भगवान विष्णु के दूत एक अजनबी आदमी को लेकर स्वर्ग में पहुंचे । उन्हें देखकर इन्द्र चकित-सा रह गया । उनके तेज के प्रभाव से इन्द्र हतप्रभ होकर इन्द्रासन से उठ खड़ा हो गया । तब दूतों ने उन आगंतुक को इन्द्रासन पर बिठाकर राजतिलक कर दिया और उन्हें इन्द्रपद दे दिया । इन्द्र ने दूतों से पूछा तब उसे पता चला ‘अब इन्द्रासन ये ही संभालेंगे । इनके पुण्य इतने बढ़ गये है कि ये इन्द्रपद के अधिकारी हो गये हैं ।’
  • इन्द्र ने सोचा : ‘उसके पास ऐसा क्या है, उसने ऐसा तो क्या किया है जिससे मेरा पद उसे दिया जा रहा है ?’
  • इन्द्र ने अपनी दैवी शक्ति से उस आगन्तुक का सारा भूतकाल देख लिया । इन्द्र दंग रह गया और भगवान विष्णु के पास गया और पूछा ”प्रभु सौ-सौ अश्वमेध यज्ञ करने के बाद भी कोई विरला ही इन्द्रपद को पाता है । इस आदमी ने न तो अश्वमेघ किये, न दान पुण्य किया, न लाख-दो लाख पेड़-पौधे लगाये, न व्रत-उपवास किये, न हजारों भूखों को भोजन कराया है फिर यह इन्द्रपद का अधिकारी कैसे हो गया ?”
  • भगवान बोले ”यह व्यक्ति गीता के ज्ञान में नित्य रमण करता था । तुमने तो वस्तुओं का उपयोग करके पुण्य पाया था और उन पुण्यों के बल से इन्द्र बने थे, लेकिन इसने तो ‘स्व’ का अनुसंधान करके निज आत्मा के ज्ञान में रत रहकर परमात्मा का साम्य पाया है। इसके तो महापुण्य हैं । इन्द्र का पद भी इसके लिए तो तुच्छ ही है। इन्द्र ! स्वर्ग के भोग भोगने से तुम्हारे पुण्य क्षीण हो गये, तुम हतप्रभ हो गये हो । अगर तुम फिर से अपना प्रभाव जगाना चाहते हो, आत्मबल बढ़ाना चाहते हो तो तुम्हें मृत्युलोक में जाना चाहिए और गीता का ज्ञान सुनकर ध्यानस्थ होना चाहिए ।’
  • कथा कहती है कि भारतभूमि में कालिकाग्राम के निकट गोदावरी नदी के किनारे ब्राहाण का रूप लेकर इन्द्र एक छोटी सी कुटिया में रहने लगा ।
  • वहाँ गीता का अध्ययन करते-करते गीता के ज्ञान के अनुसार उसने अपनी इन्द्रियों को मन में, मन को बुद्धि में और बुद्धि को आत्मा-परमात्मा सोऽहं स्वभाव में लीन किया । ज्यों-ज्यों ध्यान का, उस अकालस्वरूप के रस का चस्का लगता गया, त्यों त्यों इन्द्र के चित्त में बाहर का आकर्षण कम होता गया ।
  • धीरे-धीरे चित्त शांत होता गया,वृत्तियाँ पावन होती गयीं और चित्त में छुपे हुए चैतन्य का प्रसाद प्रकट होने लगा । गीता के ज्ञान के अनुसार इसी अभ्यास में सतत संलग्न रहकर उसने श्रीविष्णु का सायुज्य प्राप्त कर लिया ।
    – ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2001