Satsang Mahima - satsang rupi amrit ke tyag se kaise bachein

सत्संग रूपी अमृत के त्याग से कैसे बचें ?

  • सत्संगरूपी अमृत का त्याग कभी नहीं करना चाहिए । भले करोड़ों काम छोड़ने पड़ें, सत्संग में तो अवश्य ही जाना चाहिए ।
  • सरोज अपनी ही धुन में न जाने क्या-क्या सोचती हुई मंदिर की सीढ़ियाँ चढ़ रही थी । अचानक उसे लगा कि कोई उसे पुकार रहा है । उसने पीछे मुड़कर देखा तो उसकी सत्संगी बहन कांता उसे बुला रही थी । वह रूक गयी । कांता उसके समीप आकर बोली : “बहन ! काफी दिनों से तुम सत्संग में नहीं आ रही हो । क्या कहीं बाहर गयी थी ?”
  • सरोज बोली : “क्या बताऊँ बहन ! पिछले मंगलवार से बुखार छूटने का नाम ही नहीं लेता है और हमारा नौकर रामू गाँव गया हुआ है । अब घर के सारे काम भी मुझे ही करने पड़ते हैं । सुबह बच्चों को नाश्ता कराके तैयार कर स्कूल भेजती हूँ, उसके बाद नौ बजे ये जाते हैं । घर की सफाई, बर्तन, कपड़े आदि धोकर अभी कमर सीधी करने लगती हूँ कि स्कूल से बच्चे आ जाते हैं । फिर उन्हें खाना खिलाना, होमवर्क (गृहकार्य) करवाना….। बस, ऐसा करते-करते कब दिन बीत जाता है पता ही नहीं चलता । रात को फिर वही खाना बनाना, खाना खिलाना…. करते-करते 10 बजे जाकर इस गाड़ी को आराम मिलता है । क्या बताऊँ बहन ! यह मनहूस डेढ़ सप्ताह तो ऐसा बीता कि कुछ पूछो ही नहीं !”
  • सरोज की बात सुनकर कांता कुछ गम्भीर-सी हो गयी और बोली : “हाँ बहन ! यह गृहस्थी का झंझट ही ऐसा है, न करते ही बनता है और न छोड़ते ही बनता है। परंतु बहन ! इसमें हमारी भी कुछ गलती है । गृहस्थी में भी बड़े-बड़े भक्त रहते हैं । उनके भी बाल-बच्चे होते हैं, उनकी भी रिश्तेदारियाँ होती हैं, इतना सब होने पर भी वे भगवद् भजन को ज्यादा महत्त्व देते हैं । एक हम लोग हैं कि दिन-रात घर के झंझटों में ही फँसे रहते हैं और जब कभी जरा-सी फुर्सत मिलती है तब हमारा मूड नहीं होता भजन करने का । अब तू अपना ही देख, तेरा नौकर नहीं था, तुझे बुखार भी था, तब भी तूने सारे काम-धंधे किये, केवल हरिभजन को छोड़कर !”
  • दोनों बातचीत करती-करती मंदिर के दरवाजे तक पहुँच गयीं और भगवान श्री राधा-माधव को प्रणाम कर सत्संग-भवन में चली गयीं । सत्संग-समाप्त होने पर सभी सत्संगी खुशी-खुशी अपने-अपने घरों को चल दिये परतुं सरोज के कानों में कांता की वही बात गूँज रही थीं और खासकर वह अंतिम वाक्यः ʹ… … केवल हरिभजन को छोड़कर !ʹ
  • वह सोचने लगी, ʹहाँ, बात तो सही है। वास्तव में इन बीमारी के दिनों में मैंने घर का कौन-सा काम नहीं किया ? सब कुछ ही तो किया, केवल हरिभजन को छोड़कर !ʹ
  • भक्त सूरदास जी के वचन उसके कानों में गूँज रहे थे :

मो सम कौन कुटिल खल कामी ।
जिन तन दियो ताहि बिसरायो, ऐसो नमक हरामी ।।

  • यह मानव-तन हरिभजन के लिए मिला है लेकिन मनुष्य अपना सारा कीमती समय व्यर्थ के क्रियाकलापों, व्यर्थ की चर्चाओं में लगा देता है और हरिभजन के लिए उसके पास समय ही नहीं बचता । जिनके लिए पूरा जीवन खपा देता है, अंत समय उनमें से कोई भी साथ नहीं आता और मानव रीता चला जाता है । हरिभजन का हीरा कमाया नहीं, कंकड़ पत्थर चुग रीता चला मानव… कैसी विडम्बना है !
  • सीख : शास्त्रों में आता है : शतं विहाय…. कोटि त्यक्तवा हरिभजेत । ‘सौ काम छोड़कर समय से भोजन कर लो, हजार काम छोड़कर स्नान कर लो, लाख काम छोड़कर दान-पुण्य कर लो और करोड़ काम छोड़कर परमात्मा की प्राप्ति में लग जाओ ।’ सत्संग महान पुण्यदायी है । मनुष्य जन्म की सार्थकता किसमें है, यह विवेक सत्संग से ही मिलता है ।

बिनु सत्संग बिबेक न होई ।
राम कृपा बिनु सुलभ न सोई ।।

  • अतः सत्संगरूपी अमृत का त्याग कभी नहीं करना चाहिए । भले करोड़ों काम छोड़ने पड़ें, सत्संग में तो अवश्य ही जाना चाहिए ।