15 जनवरी 1958, कानपुर।
(साईं श्री लीलाशाहजी महाराज की अमृतवाणी)

गुरु-सन्देश – “सत्पुरुष अपने साधना-काल में प्रभुनाम-स्मरण के अभ्यास की आवश्यकता का अनुभव करके उसके रंग में रंगे रहते हैं।”

सत्संग-प्रसंग पर एक जिज्ञासु ने पूज्य बापू से प्रश्न कियाः “स्वामीजी ! कृपा करके बताएँ कि हमें अभ्यास में रूचि क्यों नहीं होती ?” [Why is There no Interest in Practice ? ]

पूज्य स्वामीजीः “बाबा ! अभ्यास में तब मजा आयेगा जब उसकी जरूरत का अनुभव करोगे।”

एक बार एक सियार को खूब प्यास लगी। प्यास से परेशान होता दौड़ता-दौड़ता वह एक नदी के किनारे पर गया और जल्दी-जल्दी पानी पीने लगा। सियार की पानी पीने की इतनी तड़प देखकर नदी में रहने वाली एक मछली ने उससे पूछाः ‘सियार मामा ! तुम्हें पानी से इतना सारा मजा क्यों आता है ? मुझे तो पानी में इतना मजा नहीं आता।’

सियार ने जवाब दियाः ‘मुझे पानी से इतना मजा क्यों आता है यह तुझे जानना है?’

मछली ने कहाः ”हाँ मामा!”

सियार ने तुरन्त ही मछली को गले से पकड़कर तपी हुई बालू पर फेंक दिया। मछली बेचारी पानी के बिना बहुत छटपटाने लगी, खूब परेशान हो गई और मृत्यु के एकदम निकट आ गयी। तब सियार ने उसे पुनः पानी में डाल दिया।

फिर मछली से पूछाः ‘क्यों ? अब तुझे पानी में मजा आने का कारण समझ में आया ?’

मछलीः ‘हाँ, अब मुझे पता चला कि पानी ही मेरा जीवन है। उसके सिवाय मेरा जीना असम्भव है।’

इस प्रकार मछली की तरह जब तुम भी अभ्यास की जरूरत का अनुभव करोगे तब तुम अभ्यास के बिना रह नहीं सकोगे। रात दिन उसी में लगे रहोगे।

एक बार गुरु नानकदेव से उनकी माता ने पूछाः ‘बेटा ! रात-दिन क्या बोलता रहता है ?’

नानकजी ने कहाः ‘माता जी ! आखां जीवां विसरे मर जाय। रात-दिन मैं अकाल पुरुष के नाम का स्मरण करता हूँ तभी तो जीवित रह सकता हूँ। यदि नहीं जपूँ तो जीना मुश्किल है। यह सब प्रभुनाम-स्मरण की कृपा है।’

~ जीवन सौरभ