एक गाँव में एक सज्जन व्यक्ति रहता था । धन से तो वह निर्धन था पर मन-वचन से वास्तव में धनी था ।
वह रोज रात्रि को अपनी अँधेरी गली में सरसों के तेल का दीपक जला के रख देता, जिससे राहगीरों को बहुत लाभ होता था । गाँव के लोग उसे मान देने लगे। यह देख एक धनी व्यक्ति मान की चाह में रोज अपने घर के सामने घी का दीपक रखने लगा ।
कालांतर में उन दोनों की मृत्यु हो गयी । जब दोनों यमराज के सामने पहुंचे तो उन्होंने निर्धन को उच्च श्रेणी व धनी को निम्न श्रेणी की सुविधाएँ दीं ।
धनपति को वह न्याय ठीक न लगा । उसने यमराज से कारण पूछा तो वे बोले : “महोदय ! पुण्य की महत्ता धन के आधार पर नहीं, उद्देश्य एवं कार्य की उपयोगिता के आधार पर होती है । आप घी का दीपक रखते थे । वैसे तो वह स्वास्थ्य की दृष्टि से अधिक अच्छा माना जाता है लेकिन ‘मुझे मान मिले’ इस चाह से रखते थे । आपका हेतु स्वार्थपूर्ण था । वैसे आपके घर के चारों ओर उजाला ही था जबकि वह गरीब निष्काम भाव से एवं अँधेरी गली में दीपक रखता था । उसने वहाँ पर प्रकाश फैलाया जहाँ आवश्यकता थी ।”
बात व्यवहार की हो, उपासना की हो या ईश्वरप्राप्ति की – सभी क्षेत्रों में प्रेरक, गतिप्रद एवं साफल्यप्रद मुख्य कारक है उद्देश्य !
ईश्वरप्राप्ति के मार्ग पर चलने वाला यदि इसी उद्देश्य को दृढ़ बना ले तो उसकी 95 प्रतिशत साधना तो उसी से हो जाती है । उद्देश्य के अनुरूप अपने-आप मार्ग तय होने लगता है और लक्ष्यप्राप्ति सहज हो जाती है ।
➢ लोक कल्याण सेतु, जून 2018