करम प्रधान बिस्व करि रखा।
जो जस करइ सो तस फलु चाखा । (श्रीरामचरित अयो. का. 218.2)
कर्म की अपनी कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है क्योंकि वह जड़ है । कर्म को यह पता नहीं है कि ‘मैं कर्म हूँ ।’ फिर भी यह देखा गया है कि कर्म की गति बड़ी गहन होती है । इसलिए मनुष्य अगर सावधान होकर सत्वगुण नहीं बढ़ाता है, अपितु जो मन में आया सो खा लिया, जो मन में आया सो कर लिया- इस तरह विषय-विकारों में तथा पापों और बुराइयों में जिंदगी बिता देता है तो उसे भयंकर नरकों में जाकर कष्ट भोगने पड़ते हैं और खूब दुःखद, नीच योनियों में जन्म लेना पड़ता है । पापों
अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः ।
प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ ।
‘अज्ञान से मोहित रहनेवाले तथा अनेक प्रकार से भ्रमित चित्तवाले, मोहरूप जाल से समावृत और विषयभोगों में अत्यंत आसक्त आसुर लोग महान अपवित्र नरक में गिरते हैं ।’ (श्रीमद्भगवद्गीता १६.१६)
कौशाम्बी राज्य के राजा विजयप्रताप और उनकी महारानी सुनंदा की पहली कुछ संतानें तो ठीक-ठाक थीं, लेकिन इस बार महारानी ने एक ऐसे बालक को जन्म दिया जो एक अंगविहीन मांसपिंड था ।
रानी सुनंदा उसे देखकर घबरा गयी और उसने राजा को बुलवाकर बालक दिखाया ।
राजा ने कहा : “सुनंदा ! तेरी कोख से यह मांसपिंड जैसा बालक पैदा हुआ है, फिर भी कैसे भी करके हमें इसका पालन-पोषण तो करना ही होगा ।”
बालक का नाम मकराक्ष रखा गया और उसे तलघर में छुपा दिया गया तथा दाई से कहा गया : “खबरदार ! हम तीनों के सिवाय यह बात किसी को भी पता न चले कि हमारे यहाँ ऐसा बालक पैदा हुआ है ।”
सुनंदा अपने भाग्य को कोसती हुई उस बालक का पालन-पोषण करने लगी ।
कुछ समय बीतने पर कौशाम्बी नगर के राजोद्यान में तीर्थंकर महावीर स्वामी का आगमन हुआ । सारे नगर में यह खबर फैल गयी । बड़ी संख्या में लोग उनका सत्संग सुनने के लिए राजोद्यान की ओर आने लगे ।
खूब चहल-पहल महसूस कर एक वृद्ध सूरदास (अंध व्यक्ति) ने लोगों से पूछा : “क्या आज राजा का जन्मदिन है या फिर कोई त्यौहार या उत्सव है जिसके कारण नगर में इतनी चहल-पहल हो रही है ?”
उनमें से किसी युवक ने कहा : “न तो राजा का जन्मदिन है और न ही कोई त्यौहार या उत्सव हैं, बल्कि आज नगर में महावीर स्वामी आये हैं । लोग उनके दर्शन-सत्संग के लिए राजोद्यान की ओर जा रहे हैं ।”
वृद्ध सूरदास ने कहा : “मुझे भी संत के द्वार ले चलो ।”
युवक ने कहा : “आँखों से तो तुम्हें दिखायी नहीं देता और कानों से कम सुनायी पड़ता है, फिर वहाँ जाकर क्या करोगे ?”
“मैं संत को नहीं देख सकूँगा लेकिन उनकी दृष्टि तो मुझ पर पड़ेगी जिससे मेरे पाप मिटेंगे, कानों से उनका सत्संग भी नहीं सुन सकूँगा लेकिन वहाँ के सात्त्विक वातावरण का लाभ तो मुझे मिलेगा ।”
युवक के हृदय में सज्जनता का संचार हुआ और उसने उस अंधे वृद्ध को ले जाकर सत्संग स्थल पर एक ऐसी जगह बिठा दिया, जहाँ महावीर स्वामी की दृष्टि पड़ सके।
जब महावीर स्वामी सत्संग कर रहे थे तब उनके पट्टशिष्य गौतम स्वामी, जो हमेशा महावीर स्वामी को एकटक देखते हुए ध्यानपूर्वक उनका सत्संग सुना करते थे, बार-बार उस अंधे वृद्ध को ही देख रहे थे ।
महावीर स्वामी को आश्चर्य हुआ कि ‘मेरी तरफ एकटक देखने वाला गौतम आज बार-बार मुड़कर क्या देख रहा है ?”
जब सत्संग पूरा हुआ तब महावीर स्वामी ने गौतम स्वामी से पूछा: “आज सत्संग के दौरान तुमने ऐसा क्या देखा जो तुम सत्संग से विमुख हो गये ?”
“भंते ! सत्संग में आये एक वृद्ध की ऐसी विचित्र स्थिति थी कि आँखों से तो वह अंधा था, उसके शरीर पर मक्खियाँ भिनभिना रही थीं और उससे भयंकर बदबू भी आ रही थी । बदबू के कारण कोई भी व्यक्ति उसके नजदीक नहीं बैठता था । वह कितना अभागा व दुःखी प्राणी है ! भंते ! उससे भी ज्यादा दुःखी कोई हो सकता है ?”
“हाँ, उस अंधे वृद्ध का तो कुछ पुण्य है । आँखों के सिवाय उसके शरीर के बाकी अंग ठीक हैं और वह चल फिर भी सकता है । लेकिन राजा विजयप्रताप का बालक मकराक्ष तो बिना हाथ-पैर के मांस के पिंड जैसा है और उसका पालन-पोषण तलघर में हो रहा है । इस बात को केवल राजा-रानी व एक दाई ही जानती है ।”
“भंते! अगर आपकी आज्ञा हो तो में राजमहल में जाकर उसे देख आऊँ ।”
महावीर स्वामी ने अनुमति दे दी ।
जब गौतम स्वामी राजमहल में पहुंचे तो राज विजयप्रताप व रानी सुनंदा चकित रह गये और सोचने लगे: ‘यह भिक्षा का समय नहीं है और भिक्षापात्र भी इनके हाथ में नहीं है, फिर भी महावीर स्वामी के ये पट्टशिष्य हमारे राजमहल आये हैं !’
राजा ने गौतम स्वामी का आदर-सत्कार किया और बोले : “आपके यहाँ पधारने से यह राजमहल पवित्र हो गया है । हम आपकी क्या सेवा करें ? हमें आज्ञा दीजिये ।”
गौतम स्वामी ने पूछा: “राजन् ! क्या आपके राजमहल में ऐसा भी कोई जीव है, जिसका पालन पोषण तलघर में ही हो रहा है और वह अंगविहीन मांसपिंड जैसा है ?”
गौतम स्वामी का प्रश्न सुनकर राजा-रानी चकित हो गये । राजा ने उनसे पूछा: “इस बात को हम दोनों व एक दाई के सिवाय कोई नहीं जानता, फिर आपको यह सब कैसे पता चला ?”
“राजन् ! मुझे यह सब महावीर स्वामी ने बताया है और मैं यहाँ मकराक्ष को देखने के लिए ही आया हूँ ।”
रानी ने कहा : “भोजन का समय हुआ है, मकराक्ष को भूख लगी होगी । मैं उसे भोजन कराने जाने ही वाली थी लेकिन आपके आने की सूचना पाकर रुक गयी । चलिये, मैं आपको उसके पास ले चलती हूँ ।”
वहाँ जाने से पहले रानी ने मुँह को वस्त्र से ढका और गौतम स्वामी को भी वैसा ही करने के लिए कहा, क्योंकि जिस तलघर में मकराक्ष को रखा हुआ था वहाँ ऐसी भयंकर बदबू आती थी कि खड़े रहना भी मुश्किल हो जाता था ।
वहाँ पहुँचकर गौतम स्वामी ने देखा कि भूख के कारण लार टपकाता हुआ कोई मांसपिंड हिल रहा है ।
जैसे ही रानी ने उसके मुँह में भोजन के कौर डालने शुरू किये, वह लपक लपककर खाने लगा । भोजन पूरा होते ही उस मांसपिंड में से रक्त, मवाद और विष्ठा निकलने लगी । गौतम स्वामी यह सब देखकर विस्मित हो गये ।
राजमहल से वापस आने के बाद वे नहा-धोकर महावीर स्वामी के पास गये और पूछा: “भंते ! उस अभागे जीव ने ऐसा कौन-सा कर्म किया होगा जो कौशाम्बी के राजमहल में जन्म लेकर भी ऐसी हालत में जी रहा है ?”
“गौतम! वह पूर्वजन्म में इसी भरतक्षेत्र के सुकर्णपुर नगर का स्वामी था और अन्य पाँच सौ ग्राम भी उसके अधीन थे । तब उसका नाम इक्काई था ।
वह अविद्यमान संसार को सत्य मानकर धन के लोभ में इतना नीचे गिर गया था कि लूटमार व अपहरण करके प्रजा का शोषण करता था । अपनी स्त्री होते हुए भी परायी स्त्रियों पर नजर रखता था । साधु-संतों का अपमान व सत्संग का अनादर करता था ।
पूर्वजन्म के अपने इन नीच कर्मों के फलस्वरूप ही वह अंगविहीन मांसपिंड के रूप में जन्मा है और राजघराने में जन्म लेने के बावजूद राजसी सुखों से वंचित हो भयंकर कष्टों का संताप सहन कर रहा है ।”
इसलिए कर्म करने में सावधान रहना चाहिए । मनुष्य जन्म एक चौराहे के समान है । यहीं से सारे रास्ते निकलते हैं । चाहे आप अपने जीवन में ऐसे घृणित कर्म करो कि ब्रह्मराक्षस बन जाओ… आपके हाथ की बात है या फिर जप, ध्यान, भजन, सत्कर्म, संतों का संग आदि करके ब्रह्मज्ञान पाकर मुक्त हो जाओ… यह भी आपके ही हाथ की बात है । ब्रह्मज्ञान पाने के बाद कोई कर्म आपको बाँध नहीं सकेगा।
– ऋषि प्रसाद, मार्च 2005