Surya Upasana Kaise Kare, Surya Ko Jal dene ka Mantra, Vidhi
- भारतीय संस्कृति में पंचदेवों की पूजा, उपासना का विशेष महत्व है । भगवान शिव, भगवान विष्णु और उनके अवतार, भगवान गणपति, शक्ति और भगवान सूर्य – इन पंचदेवों की पूजा, उपासना, आराधना और जप से जापक इहलौकिक-पारलौकिक, ऐहिक, नैतिक और आध्यात्मिक – सभी प्रकार के फायदे होते हैं ।
- सूर्य देव की उपासना के लिए उत्तरायण पर्व अर्थात् मकर संक्रांति का दिन विशेष प्रभावशाली माना जाता है । मकर राशि में सूर्य का प्रवेश – मकर संक्रांति’ कहलाता है । ‘संक्रांति’ अर्थात् सम्यक् क्रांति । बाह्य क्रांति मार-काट व छीना झपटी वाली होती है और आध्यात्मिक क्रांति सबकी भलाई में अपनी भलाई का संदेश देती है ।
संगच्छध्वं संवदध्वं…
- ‘मिलजुलकर रहो, आपस में उत्तम प्रेमपूर्वक भाषण करो ।’ क्योंकि तत्व सबका एक है । सरोवर में, सागर में ऊपर तरंगें अनेक लेकिन गहरे पानी में तत्व एक, ऐसे ही सबकी गहराई में सत्, चित् और आनंदस्वरूप चैतन्य परमात्मा एक ।
- उत्तरायण काल की प्रतीक्षा करते हुए 58 दिन तक शरशय्या पर पड़े रहे महामना भीष्म पितामह । बाणों की पीड़ा सहते हुए भी प्राण न त्यागे, संकल्प करके रोके रखे और पीड़ा के भी साक्षी बने । भीष्म पितामह से धर्मराज युधिष्ठिर प्रश्न करते हैं और भीष्म शरशय्या पर लेटे-लेटे उत्तर देते हैं । कैसी समता है इस भारत के वीर की ! कैसी बहादुरी है तन की, मन की और परिस्थितियों के सिर पर पैर रखने की ! हमारी संस्कृति कैसी है ! क्या विश्व में ऐसा कोई दृष्टांत सुना है ? 58 दिन तक संकल्प के बल से शरीर को धारण कर रखा है और कृष्णजी के कहने से युधिष्ठिर को उपदेश दे रहे हैं । वे उपदेश ‘महाभारत’ के शांति एवं अनुशासन पर्वों में हैं । उत्तरायण पर्व उन महापुरुष के स्मरण का दिवस तथा जीवन में कठिन परिस्थितियों और बाणों की शय्या पर होते हुए भी अपनी समता, ज्ञान और आत्मवैभव को पाने की प्रेरणा देने वाला दिवस है ।
- उत्तरायण देवताओं का प्रभातकाल है । इस दिन तिल के उबटन व तिल मिश्रित जल से स्नान, तिल मिश्रित जल का पान, तिल का हवन, तिल का भोजन तथा तिल का दान- सभी पापनाशक हैं ।
- सूर्य आत्मदेव का प्रतीक है । जैसे आत्मदेव मन, बुद्धि, शरीर व संसार को प्रकाशित करता है, ऐसे ही सूर्य पूरे संसार को प्रकाशित करता है । लेकिन सूर्य को प्रकाशित करने वाला आत्मदेव है । यह सूर्य है कि नहीं इसको जानने वाला कौन है ? ‘मैं’ । तुम्हारा ‘मैं’ ही सूर्य होकर प्रकाशमान हो रहा है – ऐसी भावना करना अहंग्र उपासना हो गयी। उपासना दो प्रकार की होती है : प्रतीक उपासना और अहंय उपासना । सूर्य ज्ञान का प्रतीक है और प्रकाश, ओज-तेज, शक्ति व स्फूर्ति का स्रोत है । सूर्य की व्याख्या करते हुए शास्त्र कहता है : सूर्य = सु+ईर् ‘सु’ माना श्रेष्ठ और ‘ईर्’ माना प्रेरणा देनेवाला। ‘सूर्यनारायण ! मेरी बुद्धि में ज्ञान-प्रकाश दो । आप आदित्य हैं, अभी हैं ।’- यह हो गयी प्रतीक उपासना । यह सूर्यनारायण की उपासना की विधि बहुत सुंदर ढंग से बतायी है शास्त्रों ने ।
असतो मा सद्गमय ।
- प्रभु ! बन-बन के बिगड़ने वाले, बदलने वाले असत् विकारों से मेरी रक्षा करके मुझे सत्य – जो सदा है, अपरिवर्तनशील है, एकरस है, उधर को ले चल ।
तमसो मा ज्योतिर्गमय ।
- मुझे अंधकार से आत्मज्योति की ओर ले चल…. मुझे नासमझी, अंधकार से बचाकर तेरे प्रकाशमय साक्षी, चैतन्य स्वभाव की ओर आकर्षित कर दे । मरने वाले शरीर को ‘मैं’ मानने का मेरा अंधकार मिट जाय । मिटने वाली वस्तुओं को ‘मेरी’ मानने का मेरा अज्ञान मिट जाय ।
मृत्योर्मा अमृतं गमय ।
- प्रभु ! मुझे मृत्यु से अमरत्व की ओर ले चल, कभी न मरे, कभी न मिटे ऐसा मेरा अपना आपा है, इसका मुझे पता नहीं । यह अज्ञान के ही कारण है । मरने वाले शरीर और मिटने वाली परिस्थितियों को सत्य मानकर बार-बार हम गर्भवास का दुःख भोग रहे हैं । जन्म का दुःख, जरा का दुःख, व्याधि का दुःख, मृत्यु का दुःख – ये बार-बार सताते हैं ।
- जैसे यह सूर्य कभी बादलों से ढका रहता है ऐसे ही अपना ज्ञानस्वरूप, सत्स्वरूप, चेतनस्वरूप, आनंदस्वरूप आत्मा, काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार व मात्सर्य – इन विकार रूपी बादलों से ढका रहता है । आत्मसूर्य का प्रतीक है यह बाह्य सूर्य, जो जगत को प्रकाशित करता है । सूर्यदेव होने से ही जीवन संचारित होता है और प्रभातकाल में सूर्योदय प्राणिमात्र को विशेष जीवनदायिनी शक्ति, ऊर्जा देता है, उल्लास देता है, जीवन देता है । ऐसे ही वह परब्रह्म परमात्मा सभी देवताओं को, मनुष्यों को, प्राणियों को, पंचभूतों को जीवन देता है । जैसे सूर्य सृष्टि को जीवन देता है, ऐसे ही जीवनदाता परमात्मा सूर्य तथा पृथ्वी, जल व तेज को जीवन देता है ।
- ‘ऋग्वेद’ में आता है :
सूर्य आत्मा जगत स्तस्थुषश्च ।
- सूर्य स्थावर-जंगमात्मक जगत का आत्मा है ।’ (1.115.1)
- पेड़-पौधों का, पक्षियों का, मानवों का, वातावरण के ऑक्सिजन का – सबका मानों सूर्य आत्मा है । अर्थात् सूर्य की उपस्थिति से जगत का व्यवहार चलता है और क्रियाएँ होती हैं ।
- भगवान ने ‘गीता’ में सूर्य को अपनी एक विभूति बताया है :
‘आदित्यानामहं विष्णुज्योतिषां रविरंशुमान् ‘
- मैं अदिति के बारह पुत्रों में विष्णु और ज्योतियों में किरणों वाला सूर्य हूँ । (गीता : 10.21)
- छान्दोग्य उपनिषद् में आता है :
‘आदित्यो ब्रह्मेति ।’
- आदित्य ब्रह्म है – इस रूप में आदित्य की उपासना करनी चाहिए । (3.19.1)
- सूर्य की उपासना, ॐकार की उपासना साधक को जल्दी उन्नत करती है, मनोवांछित फल देती है । तेज की इच्छा वाले को तेज, बल की इच्छा वाले को बल, बुद्धि के विकास वाले को बुद्धि-विकास, यशलाभ की इच्छा वाले को यशलाभ मिल जाता है । जब भी सूर्यनारायण की साधना करें तो घुमा-फिरा के उस आत्मसूर्य में, परमात्मा में प्रीति हो जाय । ‘सूर्यनारायण जिससे चमचम चमक रहे हैं उसी चैतन्य से मेरी आँखें चमकती हैं, मेरा मन विचार करता है, बुद्धि निर्णय लेती है । चंद्रमा में भी मेरे उस आत्मसूर्य की ही शीतलता है ।’- ऐसा चिंतन करें । बाह्य सूर्य तो उदय-अस्त होता-सा दिखता है लेकिन हमारा आत्मसूर्य तो सदैव ही उदित है, अस्त का सवाल ही नहीं है । यह सूर्य तो महाप्रलय में अदृश्य हो जाता है लेकिन महाप्रलय के बाद भी जीवात्मा का वास्तविक सूर्य- परमात्मा, ज्यों-का-त्यों रहता है । बाह्य सूर्य से हृदय का अज्ञान नहीं मिटता और आत्मसूर्य से हृदय का अज्ञान रहता नहीं । इसलिए ज्ञानयुक्त प्रतीक उपासना से केवल उपासना ही नहीं होती, ज्ञान भी हो जाता है । आदित्य देव की उपासना करते समय इस ‘सूर्य गायत्री मंत्र’ का जप करके ताँबे के लोटे द्वारा जल चढ़ाना विशेष लाभकारी माना गया है ।
- ‘ॐ आदित्याय विद्महे भास्कराय धीमहि । तन्नो भानुः प्रचोदयात् ।’ नहीं तो ‘ॐ सूर्याय नमः, ॐ आदित्याय नमः, ॐ रवये नमः’ जपकर भी दे सकते हैं । चढाया हुआ जल धरती पर जहाँ गिरा वहाँ की मिट्टी का तिलक लगाते हैं और इस मंत्र का जप करके लोटे में बचे हुए जल से आचमन लेते हैं :
अकालमृत्युहरणं सर्वव्याधिविनाशनम् ।
सूर्यपादोदकं तीर्थ जठरे धारयाम्यहम् ॥
- ‘अकाल मृत्यु को हरने वाला व सर्व व्याधियों का विनाश करने वाला भगवान सूर्यनारायण का चरणामृतरूपी तीर्थ मैं अपने जठर में धारण करता हूँ ।
- इससे आरोग्य की खूब रक्षा होती है । बाद में आँखें बंद करके सूर्यनारायण का भूमध्य में ध्यान करते हुए ॐकार का जप करें ।
- उपनिषद् हमें सूर्य से प्रेरणा लेने का संदेश देती है :
उदिते हि सूर्ये मृतप्रायं सर्वं जगत्पुनश्चेतनायुक्तं सदुपलभ्यते ।
यौऽसौ तपन्नुदेति स सर्वेषां भूतानां प्राणानादायोदेति ॥
- जैसे भगवान सूर्य उदित होकर अपनी उज्ज्वल रश्मियों से, तेजपूर्ण आभा से सम्पूर्ण भूमण्डल को प्रकाशित कर देते हैं, उसी प्रकार हे मानव ! तू स्वयं ऊँचा उठ । उन्नत हो और सूर्य की नाई अपना आत्मतेज विकसित कर । फिर बिना किसी भेदभाव के सम्पूर्ण जनमानस के हताश निराश हृदयों को आशा, उत्साह व आनंद के आलोक से सराबोर कर दे । ॐ आनंद… ॐ माधुर्य… ॐ ॐ ज्ञानप्रकाश… शक्ति, साहस….
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- – ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2008