एक दिन बादशाह अकबर की सभा में एक प्रश्न उठा : “अंधे अधिक हैं या आँखों वाले अधिक हैं ?

सबने कहा : “आँखों वाले अधिक हैं ।”

बीरबल ने कहा : “अंधे अधिक हैं ।”

बादशाह : “यदि ऐसा है तो सिद्ध करो ।”

बीरबल ने एक कपड़ा सिर पर बाँधा और पूछा : “यह क्या है ?”

सबने कहा: “पगड़ी ।”

उसी कपड़े को कंधे पर रखकर पूछा तो सबने कहा : “दुपट्टा” । कमर पर बाँधकर पूछा तो सबने

“धोती” कहा ।

बीरबल बोला : “जहाँपनाह ! सभी अंधे हैं क्योंकि कपड़ा कोई नहीं कहता ।”

जिस प्रकार पगड़ी, दुपट्टा, धोती में सूत तत्व (कपड़े) को कोई नहीं देखता, कपड़े के भिन्न-भिन्न आकारों को ही देखते हैं, उसी प्रकार माया की मिलावट से बनी सृष्टि में संसार के व्यक्ति-वस्तु सब दिखते हैं पर रोम-रोम, कण-कण में रम रहा ब्रह्मतत्व जिन्हें नहीं दिखता वे सब अंधे ही हैं ।

व्यावहारिक दृष्टि से उस परब्रह्म परमात्मा की आह्लादिनी शक्ति माया में यह जगत, उसके 

पंचमहाभूत और सब भौतिक वस्तुएँ दिखती हैं परंतु तात्विक दृष्टि से देखा जाए तो “एकमेवाद्वितीयम्…” अनंत ब्रह्मांडों में वह एक ही परमात्म तत्व फैला हुआ है ।

सर्वं खल्विदं ब्रह्म ।

सब कुछ ब्रह्म परमात्मा ही है । पुष्पों में सुगंध उसी की सत्ता से है, पक्षियों में किलोल उसी की चेतना से है, बालक की मुस्कान उसी की मेहरबानी से है, माँ का वात्सल्यभाव उसी की सत्ता से है, पृथ्वी में गंध उसी की सत्ता से है, सूर्य में प्रकाश उसी का है, चन्द्रमा में शीतलता और औषधियों को पुष्ट करने का सामर्थ्य उसी का है तथा तारों में टिमटिमाहट भी उसी की है ।

अखिल ब्रह्माण्डमां एक तुं श्री हरि…

‘संपूर्ण ब्रह्माण्ड में वही एक सच्चिदानंद परमेश्वर तत्व व्याप रहा है ।’

जैसे मिट्टी के घड़े में आकाश है, काँच के घड़े में भी आकाश है, काँच का काँचपना हटा दो और मिट्टी का मिट्टीपना हटा दो तो घड़े की आकृति में आया हुआ आकाश एक ही है, ऐसे ही जीव-जीव का भेद दिखने भर को है । ‘मैं गुजराती… मैं मारवाड़ी.. मैं पटेल… मैं ब्राह्मण…- ये आपकी मान्यताएँ हैं । वास्तव में तो सब एक ही हैं, इनमें तनिक भी भेद नहीं है ।

– लोक कल्याण सेतु, जुलाई-अगस्त 2006