रसिकमुरारी (Rasik Murari Ji) नाम के एक महात्मा हो गये। वे बड़े संतसेवी और गुरुभक्त थे।
अपने गुरुदेव के प्रति रसिक जी की कैसी निष्ठा व भक्तिभाव था, इससे जुड़ा उनके जीवन का मधुर प्रसंग उल्लेखनीय है।
रसिक जी (Rasik Murari Ji) के गुरुदेव को एक राजा ने आग्रहपूर्वक चार गाँव भेंट किये ताकि उनके राजस्व से साधु-संतों की सेवा भली प्रकार होती रहे। परंतु कुछ समय बाद एक लोभी ठेकेदार ने राजा को पटाकर चार गाँव खरीद लिये। संतों की सेवा में विघ्न उपस्थित देख गुरु महाराज ने रसिक जी को बुलावा भेजा। जिस समय उनके पास संदेशवाहक पहुँचा उस समय वे भोजन कर रहे थे। समाचार मिलते ही बिना हाथ धोये उसी अवस्था में चल पड़े गुरु ने उनको उक्त चार गाँव ठेकेदार से छुड़ाने की आज्ञा दी। उधर जब ठेकेदार को पता चला कि रसिकमुरारी गाँव छुड़ाने आ रहे हैं तो उसने उनके मार्ग में एक मतवाला हाथी छुड़वा दिया ताकि वह उन्हें कुचलकर मार डाले।
रसिक जी (Rasik Murari Ji) को ठेकेदार की बदनीयत पता चल चुकी थी। वे बोले :”कई जन्मों में कई बार यह शरीर मर चुका, फिर भी जन्म-मरण का अंत नहीं आया। इस बार यह नाशवान शरीर गुरुदेव के काम आ रहा है तो मेरा अहोभाग्य है!” ऐसा कहकर वे आगे बढ़ने लगे। सभी शिष्य घबराये और रसिक जी को मार्ग छोड़ने का आग्रह करने लगे।
रसिक जी (Rasik Murari Ji) ने कहा :”आप लोगों ने निष्ठापूर्वक उपदेश नहीं लिया है। अगर तुम्हें शरीर का मोह है तो गले में व्यर्थ ही यह माला क्यों पहन रखी है ?”
रसिक जी (Rasik Murari Ji) की बात सुनकर कुछ शिष्य जिन्हें जान प्यारी थी माला उतारकर आसपास छुप गये और निष्ठावान शिष्य रसिक जी के साथ ही डटे रहे।
इधर से विशालकाय हाथी बढ़ता चला आ रहा था तो इधर रसिकमुरारी गुरुनाम का जप करते निर्भयता से बढ़े चले जा रहे थे।
‘अब क्या होगा’,यह सोच कायर शिष्यों के हृदय भय से काँप रहे थे और निष्ठावान शिष्य अपने सदभाग्य की मनोमन सराहना कर रहे थे।
जाको राखे साईंयाँ, मार सके ना कोय।
बाल न बाँका करि सकै, चाहे जग बैरी होय।।
रसिक जी (Rasik Murari Ji) के समीप आकर वह मतवाला हाथी मानो पालतू कुत्ता बन गया। रसिक जी की दृष्टि पड़ते ही उस तामसी जीव में भी अष्टसात्विक भावों का संचार हो गया। उसके नेत्रों से जल बहने लगा और वह हाथी रसिक जी के चरणों में शीश झुकाकर बैठ गया।
रसिक जी (Rasik Murari Ji) ने शिष्यों की उतारी हुई मालाएँ हाथी को पहना दीं और उसके कान में ‘रामकृष्ण नारायण’ मंत्र सुनाकर उसे मंत्रदीक्षा भी दे दी। उसका मतवालापन शांत हो गया। जो बेचारे माला छोड़कर छुप गये थे वे भी अपनी जगह से निकल आये और रसिक जी के चरणों में पड़कर क्षमा माँगी व पुनः शरणागत हुए।
जब ठेकेदार को यह समाचार मिला तो वह नंगे पाँव भागा-भागा आया और रसिक जी से क्षमा याचना करने लगा। उसने चारों गाँवों के दस्तावेज और वह हाथी भी रसिक जी को भेंट कर दिया।
गुरुसेवा में सफल होकर जब वे अपने गुरुदेव के पास पहुँचे तो गुरु ने परम संतुष्ट होकर उनके अपने हृदय से लगा लिया।
✍🏻गुरु शिष्य से संतुष्ट हो जायें, इसके आगे तीनों लोकों का वैभव भी तुच्छ है, अष्टसिद्धियाँ, नवनिधियाँ भी फीकी हैं।
भगवान शिवजी माता पार्वतीजी से कहते हैं :
आकल्पजन्मकोटीनां यज्ञव्रततपः क्रियाः |
ताः सर्वाः सफला देवि गुरुसंतोषमात्रतः ||
हे देवी ! कल्प पर्यन्त के, करोंड़ों जन्मों के यज्ञ, व्रत, तप और शास्त्रोक्त क्रियाएँ ये सब गुरुदेव के संतोषमात्र से सफल हो जाते हैं | (147)
~लोक कल्याण सेतु/जून-जुलाई २०१०