सिंध टंडा आदम में जब साँईं टेऊँरामजी (Sai Teoonram) के श्री अमरापुर दरबार का निर्माण कार्य चल रहा था तो वे स्वयं बालू के टीले पर रहते थे । लोग आते और दर्शन करते । लोगों के लिए प्रसाद बनता । प्रसाद बनाने के लिए कुछ बर्तन भी इकट्ठे हुए । कोई बाड़-वाड़, कुछ ठाम-ठिकाने जैसा कोई स्थान तो वहाँ था नहीं, मरुभूमि के टीले पर ही रहते थे ।
एक रात को चोर आये, बर्तन व सीधा-सामान लेकर रवाना हो गये । सुबह हुई, देखा कि यह तो सफाई हो गयी ! सेवकों ने कहा : ‘‘खुले मैदान में टीले पर भक्त, रसोइये सब अपनी-अपनी जगह पर सोये थे और चोर सारा सामान उठाकर ले गये । आप आज्ञा दें तो चोरों के पदचिह्न देखकर खोजबीन करें ।’’
बोले : ‘‘तुम बैठे रहो, देखो क्या होता है ।’’
सेवक सोचने लगे, ‘क्या होगा ? खायेंगे क्या ? बर्तन कहाँ से आयेंगे ? सीधा कहाँ से आयेगा, कब बनेगा ? 10 बज गये… 11 बज गये ।’
बोले : ‘‘तुम देखते रहो उस लीलाधर की लीला । जिसने बर्तन चुरानेवाले को सत्ता दी है, स्फुरणा दी है, खाने और खिलानेवालों की जिम्मेदारी भी तो उसीकी है । उनको खिलायेगा भी वही । तुम काहे को चिंता करते हो ! तुम तो भजन में रहो मस्ती से ।’’
11.30 बजे… 12 बजे तो पंगत में भोजन होता था । पेट में चूहे कसरत करने लगे ।
‘एकांत टीले हैं मरुभूमि में, 12 बजे कहाँ खाने जायेंगे ?’ सेवकों ने विचारा ही था कि इतने में 12 बजने के कुछ मिनट पहले ही एक बाई आयी । उसके साथ कुछ लोग सामान उठाकर भी आये थे ।
बाई बोली : ‘‘तैयार भोजन है । आप लोग बैठो, भोजन करो ।’’
‘‘माताजी ! तुमको हम पहचानते नहीं हैं । तुम कौन हो ? कहाँ से आयी हो ?’’
वह बोली : ‘‘पहले भोजन कर लो, बाद में पूछ लेना ।’’
‘‘नहीं, पहले आप जरा बताओ ।’’
‘‘मैं शरीर से ब्राह्मणी हूँ । मैं बैठी थी तो मेरे को प्रेरणा हुई कि इस टीले की तरफ इतने संत-महात्माओं का भोजन बनाकर ले जाओ । तो मैंने देखा कि यह प्रातःकाल के ध्यान-भजन की प्रेरणा है । 8… 8:30… 9 बजे मैंने देखा कि यह प्रेरणा बार-बार उठ रही है तो मैंने बनाया । बन गया तो हम लेकर आये ।’’
सबको भोजन कराया । भोजन कम नहीं पड़ा ।
टेऊँरामजी (Sai Teuram ji) ने कहा : ‘‘देखो, जो बर्तन चुरानेवाले को प्रेरित करता है, वह भक्तों को भी प्रेरणा करता है कि ‘भोजन बनाओ और ले जाओ ।’ कैसा है ईश्वर का खेल !’’
यह कथा तो मैंने सुनी हुई है, एक घटना है लेकिन मैं इस सम्पूर्ण घटना को सत्य मानने में जरा भी संकोच नहीं करूँगा ।
आज से 32-33 साल पहले हम लोग गंगोत्री गये थे । उस जमाने में गंगोत्री में गिने-गिनाये दो-चार साधु रहते होंगे, बाकी कोई चिड़िया भी नहीं फटकती, ऐसा सन्नाटा रहता था । बस तो जाती ही नहीं थी गंगोत्री । उत्तरकाशी के बाद थोड़ा-सा बस चलती, बाद में पैदल ही जाना पड़ता था । हम लोग पैदल गये थे । चंदीराम थे, एक दूसरा साधक, करसन भाई चौधरी (गुजरात के तत्कालीन राजस्व मंत्री) तथा मैं था और हम लोगों का सामान लादकर चलनेवाला मजदूर भी था । इस तरह हम 5 लोग थे ।
हम करीब 3:30 बजे गंगोत्री पहुँचे, जहाँ गंगाजी का मंदिर है । तो मंदिर के पहले ही एक लम्बी-लम्बी जटाओं वाले साधु आये और संकेत से हमको कहा : ‘‘चलो ।’’
ले चले और हम लोगों को संकेत किया हाथ-पैर धो के भोजन करो । देखा तो भोजन में गरमागरम शीरा है, सब्जी है, पहाड़ी चावल है, रोटी है । उन्हीं महापुरुष ने बनाया था ।
हमने भोजन किया, फिर पूछा : ‘‘हमको तो पता भी नहीं था कि इधर पहुँचेंगे और हमारा अपना सीधा-सामान था… आपने हमारे लिए यह भोजन क्यों बनाया ? क्या हुआ था ?’’
वे मौनी थे और अच्छी ऊँची अवस्थावाले संत थे । किसी के मन की बात जानना उनके लिए बायें हाथ का खेल था । कई साधु उनके दर्शन करना चाहते थे, मिलना चाहते थे । किसी-किसी को दर्शन होते थे, कइयों को नहीं भी होते थे । ऐसे महापुरुष हमारे लिए भोजन बनायें और हमें खुद अपने हाथों से परोस-परोस के खिलायें तो आश्चर्य तो होगा ! मैंने पूछा कि ‘‘दूसरा कोई सेवक भी नहीं है सहायता के लिए, आपने यह भोजन… ?’’
उन्होंने लिखकर बताया कि ‘मैं सुबह ग्यारह बजे ध्यान से उठकर भोजन बनाता हूँ । आज चावल साफ करते-करते छः आदमियों के लिए चावल साफ हो गये । सब्जी सँवारते-सँवारते सब्जी भी इतनी ज्यादा हो गयी, फिर आटा गूँथना था तो आटा भी ज्यादा गूँथ गया । मैंने सोचा, क्या पता किसके लिए बनवा रहा है !’
देखो, महापुरुषों का अपने शरीर पर, मन पर ममत्व नहीं होता । शरीर और मन को जो चलानेवाला परम सत्त्व है उस पर ही ममत्व होता है । यह महापुरुषों का महापुरुषत्व है !
भोजन बनाकर तैयार कर लिया तो मैंने सोचा कि ‘किनके लिए बनवाया है ?’ बाहर आया तो आप पाँच लोग और छठा मैं । मैंने देखा कि तुम्हारे लिए ही बनवाया है उसने ।
उन्होंने मौन रखा था । मैं प्रश्न करता और वे लिखकर जवाब देते थे । थोड़े ही प्रश्नोत्तर में हमारी आत्मीयता हो गयी । मैंने कहा : ‘‘लिखने में समय जाता है, हम मौन खोलकर बात करें ? आपको अभी क्या घाटा है बोलने में ?’’
उन्होंने मौन खोल दिया । कोई रुपयों के बल से अथवा किसी प्रभाव से उनका मौन खुलवा ले उनमें से नहीं थे वे लेकिन मेरे प्रति उनका इतना सद्भाव, स्नेह हो गया कि मौन खोलकर बात करने लगे । मैंने नाम पूछा तो चेतनानंद बताया । उनकी अंतर्यामी-स्थिति थी । उनके लिए भूत, भविष्य, वर्तमान तीन काल नहीं थे । जो सदा वर्तमान में बरतता है, जिसकी सत्ता से सब परिवर्तित होता है, बरतता है वे उसमें स्थित महापुरुष थे ।
मैंने कहा : ‘‘आपने मेरे लिए भोजन कैसे बना लिया ? मेरा तो आपसे परिचय भी नहीं था और अभी तो मैंने कोई साधुवेश भी नहीं धारण किया है । अभी तो गुरुजी ने भेज दिया है संसार में ।’’
वे बोले : ‘‘बाहर से तुम संसारी दिखते हो ।’’
फिर मेरे को पिछले जन्मों की साधना या संतत्व की बातें बताने लगे । मेरी पूर्वकाल की साधना के बारे में बोलने लगे ।
तो वह कौन है जो ऐसे उच्चकोटि के संत को मेरे जाने से पहले प्रेरणा करके भोजन बनवा लेता है । वह कैसा है ? कितना ख्याल रखता है ! मैं अपना बल लगाकर अथवा शिष्यों का प्रभाव दिखाकर भी उन महापुरुष से भोजन नहीं बनवा सकता था । लेकिन परमात्मा ने उन महापुरुष को कैसे प्रेरित किया कि उन्होंने मेरे लिए भोजन बनाया । मेरे मजदूर के लिए भी भोजन बनाया और खुद ही हाथ से परोसकर हम लोगों को खिलाया । वह कैसा सुहृद है !
चोर सामान ले गये और टेऊँरामजी व उनके सेवकों के लिए ब्राह्मणी द्वारा भोजन बनवाकर टीले पर पहुँचवा दिया । यह कैसा है सृष्टिकर्ता ! वह मेरा प्यारा कैसा ध्यान रखता है ! कैसा दीनबंधु है ! कैसा प्राणिमात्र का हितैषी है ! कैसा परम सुहृद है ! कैसा अंतर्यामी है, कैसा उदार है और कैसा ख्याल रखता है ! माँ की जेर के साथ हमारी नाभि जोड़नेवाला कैसा उदार है कि हमारा जन्म होते ही माँ के शरीर में दूध बना देता है ! भगवान स्वयं कहते हैं कि ‘सुहृदं सर्वभूतानां… प्राणिमात्र का मैं सुहृद हूँ । ऐसा जो जानता है वह शांति को पाता है ।’ उस परमेश्वर को छोड़कर जो इधर-उधर की चीजों से सुख लेना चाहता है वह अपने-आपका दुश्मन है । जो इधर-उधर का आकर्षण छोड़कर उस प्यारे की कृपा की प्रतीक्षा नहीं पद-पद पर समीक्षा कर लेता है, वह धन्य है ! वह आनंददाता के आनंद में, रसस्वरूप के रस में सराबोर हो जाता है ।
(ऋषि प्रसाद : अप्रैल 2012 )