आज हम जानेंगे : कैसे एक संत को सताने से एक काजी अपने प्राण गँवा बैठा ?
मुगलों के समय की घटना है । संत दादू दीनदयालजी सांभर (जि. उदयपुर, राज.) में ठहरे हुए थे । वहाँ की जनता दर्शन व सत्संग हेतु उनके पास आने लगी । दादूजी के प्रति लोगों के हृदय में आदर व श्रध्दा देखकर एक काजी उनसे ईर्ष्या करने लगा। उसे ‘दादू’ नाम सुनने मात्र से पीड़ा होने लगी । क्रोध एवं मद में अंधा होकर काजी उनके पास आया और अकड़कर बोला : ‘‘अरे काफिर ! तूने सारे नगर की जनता को बरगला दिया है । मैं तुझे मजा चखाऊँगा ।
दादूजी : ‘‘मूर्ख काजी ! तू क्रोध क्यों करता है ? मद में इतना चूर क्यों हो रहा है ? सब जीवों में एक खुदा का नूर बसा हुआ है और तुम जीवों को मारकर खा जाते हो । यह सब छोड़ दो,नहीं तो इन करतूतों से तुम नरक में ही पडोगे ।”
यह सुनते ही काजी उत्तेजित हो गया तथा दादूजी को एक तमाचा मार दिया । दादूजी ने कहा : ‘‘भैय्या ! तुमको मारने से ही प्रसन्नता होती है तो दूसरे गाल पर भी मार सकते हो ।
काजी दुर्जन तो था ही, दूसरे गाल पर मारने के लिए हाथ उठाया तो उसका हाथ उठा ही रह गया, नीचे नहीं हुआ । उसमें भयंकर पीडा होने लगी । वह हाय-हाय करने लगा, चीखने-चिल्लाने लगा और तड़पता हुआ दादूजी को कोसने लगा ।
अपने प्यारे संतों और भक्तों का अपमान भगवान कभी सहन नहीं करते। काजी को अशांति और उद्विग्नता ने आ घेरा । जिस हाथ से काजी ने तमाचा मारा था वह धीरे-धीरे गल गया । तीन माह तक असहनीय कष्ट सहकर काजी तड़प-तड़प कर मर गया । संतों की निंदा करनेवालों के जीवन से सुख-शांति छू हो जाती है, अशांति, उद्विग्नता घर बैठे मुफ्त में मिलने लगती है । संतों के दैवी कार्य में विघ्न डालनेवालों को दुःख-परेशानियाँ आ घेरती हैं, कष्ट-मुसीबतें उनका पीछा नहीं छोडतीं । संतों को सतानेवालों का दिन का चैन व रात की नींद छिन जाती है ।
सीख :
संत सताये तीनों जायें तेज, बल और वंश ।
एडा-एडा कई गया रावण, कौरव , कंस ।।
संत साक्षात् भगवान का अवतार होते हैं । लोगों की कहीं हुई बातों में आकर किसी भी संत का अनादर या निंदा नहीं करनी चाहिए ।