Thakur Ram Singh Ji “Sant Thanedar” Short Story in Hindi

संत रविदास जी कहते हैं :-

‘रविदास’ मदिरा का पीजियै, जौ चढ़ै चढ़ै उतराय ।
नाम महारस पीजियै, जौ चढ़ै नांहि उतराय ।।

सूफी परंपरा के एक सिद्ध संत हो गये ठाकुर रामसिंह जी । वे जयपुर की रियासत के ईमानदार एवं कर्तव्यनिष्ठ पुलिस अधिकारी थे । रामसिंह जी का चरित्र इतना उज्ज्वल था कि लोग उन्हें ‘संत थानेदार’ नाम से पुकारने लगे । इनके सद्गुरु फतेहगढ़ (उ.प्र.) के महात्मा रामचंद्र जी थे । जिसे सूफी परंपरा में ‘फनालिक मुरीद’ कहते हैं अर्थात् ऐसा सत्शिष्य जिसमें उसका गुरु स्वयं लय हो गया हो, संत थानेदार को वह अवस्था संतकृपा से प्राप्त थी ।

गुरुप्रेम में वे इतने सराबोर रहा करते थे कि अपना नाम भी भूल जाया करते थे । एक बार किसी गवाही के सिलसिले में अदालत गये तो वहाँ जब उनसे नाम पूछा गया तो उन्होंने कोई जवाब न दिया । कोर्ट क्लर्क ने उन्हें नाम याद दिलाया । जज भी ऐसे व्यक्ति को देखकर आश्चर्यचकित रह गया ।

डिप्टी सुपरिन्टेन्डेंट कुशलसिंह ठाकुर रामसिंह जी के बाल्यावस्था के मित्र थे । कुशलसिंह एक सच्चे, ईमानदार थानेदार थे पर शराब पीने के दुर्गुण ने उनके सारे सद्गुणों पर पानी फेर दिया था। शाम होते ही वे दोस्तों के साथ शराब पीने बैठ जाते । ऐसे ही एक मौके पर संत थानेदार पहुँच गये ।

उन्होंने कुशलसिंह से कहा : “आप शराब मत पीया करें ।”

कुशलसिंह ने उनकी बात हँसी में उड़ा दी। संत थानेदार ने एक बार फिर प्यार से समझाया ।

कुशलसिंह बोले : “आप क्या जानें शराब का मजा ? एक दिन पीकर देखो। स्वर्ग आसमान से धरती पर उतर आएगा ।”

यह सुनकर संत थानेदार बोले : “शराब हम भी पीते हैं । पैसे भी नहीं लगते और नशा भी चौगुना आता है ।”

कुशलसिंह चकित होते हुए बोले : “क्या ऐसी शराब भी होती है, जिसका नशा चौगुना चढ़े ?”
संत थानेदार ने कहा : “होती है, शाम को आना…. पिलायेंगे ।”

शाम को कुशलसिंह संत थानेदार के कमरे में आये ।

संत थानेदार ने कहा : “हाथ-पैर धोकर सामने बैठ जाओ । वे हाथ-पैर धोकर सामने बैठ गये। बातें होती रहीं । कुशलसिंह पर नशा छाने लगा । वाणी ने मौन धारण कर लिया। पलकें बंद हो गयीं। शरीर की सुध-बुध जाती रही । अंतर में प्रकाश छा गया । जब आँख खुली तो सामने संत थानेदारजी बैठे हुए मंद-मंद मुस्करा रहे थे । कुशलसिंह ने भाव-विभोर होकर संत थानेदार के पाँव पकड़ लिये । कुशलसिंह को सात दिन और सात रात तक वही नशा छाया रहा। उनकी आँखों में एक अजीब सी मस्ती छायी रहती ।

मित्र कहने लगे : “भाई ! आजकल दिन में भी पीते रहते हो क्या ?”

उस दिन से कुशलसिंह की नशे की आदत हमेशा के लिए छूट गयी । वे उनके शिष्य बन गये और संत थानेदार के प्रति आजीवन तन-मन से समर्पित रहे ।

➢ लोक कल्याण सेतु, जुलाई-अगस्त 2006