विजयी विश्व तिरंगा प्यारा झण्डा ऊँचा रहे हमारा…
जानकीदास मेहरा नाम का एक नवयुवक था। बड़े परिश्रम के बाद सन् 1946 में ज्यूरिख (स्विट्जरलैंड) में होने वाले अंतर्राष्ट्रीय खेल के लिए चुना गया ।
उसकी खुशी का ठिकाना नहीं था । उसके चयन का समाचार अखबारों में छपा। गाँधीजी ने भी यह खबर पढ़ी और उन्हें बहुत खुशी हुई। उन्हें यकीन हुआ कि खेलों में भारत का भविष्य उज्ज्वल है।
गाँधीजी ने अपनी साप्ताहिक पत्रिका ‘हरिजन’ में जानकीदास के चयन की खबर प्रकाशित करवायी और विजय के लिए अपनी शुभकामनाएं दी । इस समाचार को पाकर जानकीदास हर्ष से नाच उठा । उसने न जाने कितनी बार गाँधीजी के उस लेख को पढ़ा होगा।
एक दिन वह गाँधीजी से मिलने गया।
गाँधीजी ने कहा : ”मुझे पूरा विश्वास है कि तुम भारत का नाम ऊँचा करोगे लेकिन एक बात याद रखना कि तुम भारतवासी हो और भारत के झंडे के अलावा किसी और झंडे के नीचे खेल में भाग नहीं लोगे।”
जानकीदास ने पूछा: “भला वह कैसे ?”
“तुम अपना झंडा अपनी कमीज में छिपाकर ले जाना और जैसे ही मौका मिले ‘यूनियन जैक’ की रस्सी काटकर अपने देश का झंडा फहरा देना।
उसने डरते हुए कहा: “बापू! मैं यह कैसे कर पाऊंगा ?”
“मैं तुम्हें इतना डरपोक नहीं समझता था। जानकीदास ! अगर तुम आनेवाले इतिहास में अपना नाम अमर देखना चाहते हो तो तुम झंडा भी फहराओगे और अपने देश के लिए मरने को भी तैयार रहोगे ।”
गाँधीजी की बात सुनकर उसका स्वाभिमान और साहस जाग उठा । वह पूरे उत्साह से ज्यूरिख गया। खेल के मैदान में उसने बिल्कुल वैसा ही किया जैसा गाँधीजी ने उसे समझाया था ।
मैदान में उपस्थित भारी भीड़ ने आश्चर्य से वह नजारा देखा जब ‘यूनियन जैक’ नीचे उतरा और उसकी जगह भारत का झंडा हवा में लहराने लगा। यह जानकीदास की विजय का क्षण था। ज्यूरिख ने जानकीदास को सदा के लिए इतिहास में अमर कर दिया।
📚ऋषि प्रसाद/जनवरी 2011