Childhood Motivational Story of Keshav Baliram Hedgewar (Founder of RSS)
  • विद्यालय में बच्चों में मिठाई बाँटी जा रही थी । जब एक 11 वर्ष के बालक केशव को मिठाई का टुकड़ा दिया गया तो उसने पूछा : “मिठाई किस बात की है ?”
  • कैसा बुद्धिमान रहा होगा वह बालक ! जीभ का लंपट नहीं वरन् विवेक-विचार का धनी रहा होगा ।
  • बालक को बताया गया : ‘आज महारानी विक्टोरिया का ‘बर्थ डे’ (जन्मदिन) है इसलिए खुशी मनायी जा रही है ।’
  • बालक ने तुरन्त मिठाई के टुकड़े को नाली में फेंक दिया और कहा : “रानी विक्टोरिया अंग्रेजों की रानी है और उन अंग्रेजों ने हमको गुलाम बनाया है । गुलाम बनाने वालों के जन्मदिन की खुशियाँ हम क्यों मनायें ? हम तो खुशियाँ तब मनायेंगे जब हम अपने देश भारत को आजाद करा लेंगे ।”
  • वह बुद्धिमान बालक केशव जब नागपुर के ‘नीलसिटी हाई स्कूल’ में पढता था, तब उसने देखा कि अंग्रेज जोर-जुल्म करके हमें हमारी संस्कृति से, हमारे धर्म से, हमारी मातृभक्ति से दूर कर रहे हैं । यहाँ तक कि ’वन्दे मातरम्’ कहने पर भी प्रतिबंध लगा दिया है !
  • यह धैर्यवान और बुद्धिमान लड़का हर कक्षा के प्रमुख से मिला और उनके साथ गुप्त बैठक की । उसने कहा : “हम अपनी मातृभूमि में रहते है और अंग्रेज सरकार द्वारा हमें ही ‘वन्दे मातरम्’ कहने से रोका जाता है । अंग्रेज सरकार की ऐसी-तैसी..”
  • जो हिम्मतवान और बुद्धिमान लड़के थे उन्होंने केशव का साथ दिया और सभी ने मिलकर तय किया कि क्या करना है । लेकिन ‘यह बात गुप्त रखनी है और अपने नेता का नाम नहीं लेना है ।’ प्रत्येक कक्षा-प्रमुख ने यह बात तय कर ली !
  • ज्यों ही स्कूल का निरीक्षण करनेवाला बड़ा अधिकारी और कुछ लोग केशव की कक्षा में आए, त्यों ही उसके साथ कक्षा के सब बच्चे खड़े हो गये और बोल पड़े – ‘वन्दे मातरम् !’ शिक्षक तो भारतीय थे लेकिन अंग्रेजों की गुलामी से जकड़े हुए थे, वे चौंके ! निरीक्षक हड़बड़ाए : ‘यह क्या बदतमीजी है ! यह ‘वंदे मातरम्’ किसने सिखाया ? उसको खोजो, पकड़ो ।’
  • दूसरी कक्षा में गये । वहाँ भी बच्चों ने खड़े होकर कहा : ‘वंदे मातरम् ।’
  • अधिकारी : ‘ये भी बिगड़ गये ?’
  • स्कूल की हरेक कक्षा के विद्यार्थियों ने ऐसा ही किया ।
  • अंग्रेज अधिकारी बौखला गया और चिल्लाया : ‘किसने ये सीख दी ?’
  • सब बच्चों से पूछा गया परंतु किसीने नाम नहीं बताया ।
  • अधिकारी ने कहा : “बच्चों को स्कूल से निकाल देंगे ।”
  • बच्चे बोले : “तुम क्या निकालोगे ? हम ही चले । जिस स्कूल में हम अपनी मातृभूमि की वंदना न कर सकें । ‘वंदे मातरम्’ न कह सकें – ऐसे स्कूल में हमें नहीं पढ़ना ।”
  • उन दुष्ट अधिकारियों ने सोचा कि अब क्या करें ? फिर उन्होंने ‘बच्चों के माँ-बाप पर दबाव डाला कि बच्चों को समझाओ, सिखाओ ताकि माफी मांग लें ।’
  • केशव के माता-पिता ने कहा : “बेटा ! माफी मांग लो ।”
  • केशव : “हमने कोई गुनाह ही नहीं किया तो माफी क्यों मांगे ?”
  • किसी ने केशव से कहा : “देश-सेवा की और लोगों को जगाने की बात इस उम्र में नहीं करो, अभी तो पढ़ाई करो ।”
  • केशव : “बूढ़े-बुजुर्ग और अधिकारी लोग मुझे सिखाते हैं कि देश सेवा बाद में करना जो काम आपको करना चाहिए, यह आप नहीं कर रहे हैं इसलिए हम बच्चों को करना पड़ेगा । आप मुझे अक्ल देते हैं ? अंग्रेज हमें दबोच रहे हैं, हमें गुलाम बनाये जा रहे हैं तथा हिन्दुओं का धर्मान्तरण कराये जा रहे हैं और आप चुप्पी साधे जुल्म सह रहे हैं ? आप जुल्म के सामने लोहा लेने का संकल्प करें तो मैं पढ़ाई में लग जाऊँगा, नहीं तो पढ़ाई के साथ देश की आजादी की पढ़ाई भी मैं पढूँगा और दूसरे विद्यार्थियों को भी मजबूत बनाऊँगा ।”
  • आखिर बड़े-बूढे-बुजुर्गों को कहना पड़ा । ‘यह भले 14 वर्ष का बालक लगता है लेकिन कोई होनहार है ।’ उन्होंने केशव की पीठ थपथपाते हुए कहा : “शाबाश है, शाबाश !”
  • “आप मुझे शाबाशी तो देते हैं लेकिन आप भी जरा हिम्मत से काम लें । जुल्म करना तो पाप है लेकिन जुल्म सहना दुगना पाप है ।”
  • केशव ने बूढ़े-बुजुर्गों को सरलता से, ममता से, धीरज से समझाया ।
  • डेढ़ महीने बाद यह स्कूल चालू हुई । अंग्रेज शासक चौदह वर्षीय बालक का लोहा मान गये कि उसके आगे हमारे सारे षड्यंत्र विफल हो गये । उस लड़के के पाँच मित्र थे । वैसे ये पाँच मित्र रहते तो सभी विद्यार्थियों के साथ हैं, लेकिन अक्लवाले विद्यार्थी ही उनसे मित्रता करते हैं । ये पाँच मित्र कौन-से हैं ?

विद्या शौर्यं च दाक्ष्यं च बलं धैर्यं च पंचकम् ।
मित्राणि सहजन्याहुः वर्तन्ति एव त्रिर्बुधाः ॥

  • विद्या, शूरता, दक्षता, बल और धैर्य – ये पाँच मित्र सबके पास हैं । अक्लवाले विद्यार्थी इनका फायदा उठाते हैं, लल्लू-पंजू विद्यार्थी इनसे लाभ नहीं उठा पाते ।
  • केशव के पास ये पाँचों मित्र थे । वह शत्रु और विरोधियों को भी ममता और दक्षता से समझा बुझाकर अपने पक्ष में कर लेता था ।
  • एक बार नागपुर के पास यवतमाल (महा.) में केशव अपने साथियों के साथ कहीं टहलने जा रहा था । उस जमाने में अंग्रेजों का बड़ा दबदबा था । वहाँ का अंग्रेज कलेक्टर तो इतना सिर चढ़ गया था कि कोई भी उसको सलाम मारे बिना गुजरता तो उसे दण्डित किया जाता था ।
  • सैर करने जा रहे केशव और उसके साथियों को वही अंग्रेज कलेक्टर सामने मिला । बड़ी-बड़ी उम्र के लोग उसे प्रणाम कर रहे थे । सबने केशव से कहा : “अंग्रेज कलेक्टर साहब आ रहे हैं । इनको सलाम करो ।”
  • उस 15-16 वर्षीय केशव ने प्रणाम नहीं किया । कलेक्टर के सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया और कहा : “तू प्रणाम क्यों नहीं करता ? साहब तेरे से बड़े हैं ।”
  • केशव : “मैं इनको प्रणाम क्यों करू ? ये कोई महात्मा नहीं हैं वरन् सरकारी नौकर हैं । अगर अच्छा काम करते तो आदर से सलाम किया जाता, जोर-जुल्म से प्रणाम करने की कोई जरूरत नहीं है ।”
  • सिपाही : “अरे बालक ! तुझे पता नहीं, सभी लोग प्रणाम करते हैं और तू ऐसी बातें बोलता है ?”
  • कलेक्टर गुर्राकर देखने लगा । अंग्रेज कलेक्टर की तरफ प्रेम की निगाह डालते हुए केशव ने कहा : “प्रणाम भीतर के आदर की चीज होती है । जोर-जुल्म से प्रणाम करवाना आपको शोभा नहीं देता । हृदय में आदर न हो तो झूठमूठ में प्रणाम करना पाप माना जाता है फिर आप मुझे क्यों जोर-जबरदस्ती करके पाप में डालते हो ? दिखावटी प्रणाम से आपको क्या फायदा होगा ?”
  • अंग्रेज कलेक्टर का सिर नीचा हो गया, बोला : “इसको जाने दो, यह साधारण बालक नहीं है ।”
  • 15-16 वर्षीय बालक की कैसी दक्षता है कि दुश्मनी के भाव से भरे कलेक्टर को भी सिर नीचे करके कहना पड़ा : “इसको जाने दो ।”
  • यवतमाल में यह बात बड़ी तीव्र गति से फैल गयी और लोग वाहवाही करने लगे : ‘केशव ने कमाल कर दिया ! आज तक जो सबको प्रणाम कारवाता था, सबका सिर झुकवाता था, केशव ने उसीका सिर झुकवा दिया !’
  • पढ़ते-पढ़ते आगे चलकर केशव मेडिकल कॉलेज में भर्ती हुआ । मेडिकल कॉलेज में सुरेन्द्र घोष नामक एक बड़ा लंबा-तगडा विद्यार्थी था । वह रोज ‘पुलप्स’ करता था और दण्ड-बैठक भी लगाता था । अपनी भुजाओं पर उसे बड़ा गर्व था, ‘अगर एक घूँसा किसीको लगा दूं तो दूसरा न माँगे ।’
  • एक दिन कॉलेज में उसने केशव की प्रशंसा सुनी तो यह केशव के सामने गया और बोला : “क्यों रे, तू बड़ा बुद्धिमान, शौर्यवान और धैर्यवान होकर उभर रहा है । है शूरता तो मुझे मुक्के मार, मैं भी तेरी ताकत देखूँ ।”
  • केशव : “नहीं-नहीं, भैया ! मैं आपको नहीं मारूंगा । आप ही मुझे मुक्के मारिये । ऐसा कहकर केशव ने अपनी भुजा आगे कर दी ।”
  • वह जो ‘पुलप्स’ करके, कसरत करके अपने शरीर को मजबूत बनाता था, उसने मुक्का मारा ‘एक, दो, तीन… पांच… पंद्रह… पच्चीस… तीस… चालीस…’ मुक्के मारते-मारते आखिर सुरेन्द्र घोष थक गया, पसीने से तर-बतर हो गया । देखनेवाले लोग चकित हो गये !
  • आखिर सुरेन्द्र ने कहा : “तेरा हाड़-मांस का शरीर है कि लोहे का ? सच बता, तू कौन है ? मुक्के मारते-मारते मैं थक गया पर तू ‘उफ’ तक नहीं करता है ?”
  • प्राणायाम का रहस्य जाना होगा केशवराव ने ! आत्मबल बचपन से ही विकसित था । दुश्मनी के भाव से भरा सुरेन्द्र घोष केशव का मित्र बन गया और गले लग गया ।
  • कलकत्ता के प्रसिद्ध मौलवी लियाकत हुसैन 60 साल के थे और नेतागिरी में उनका बड़ा नाम था । नेतागिरी से उनको जो खुशियाँ मिलती थी, उनसे वे 60 साल के होते हुए भी चलने, बोलने और काम करने में जवानों को भी पीछे कर देते थे ।
  • मौलवी लियाकत हुसैन ने केशवराव को एक सभा में देखा । उस सभा में किसीने भाषण में लोकमान्य तिलक के लिए कुछ हल्के शब्दों का उपयोग किया । देशभक्ति से भरे हुए लोकमान्य तिलक के लिए हल्के शब्द बोलने और भारतीय संस्कृति को “वंदे मातरम्” करके निहारनेवाले लोगों को खरी-खोटी सुनाने की जब उसने बदतमीजी की तो युवक केशव उठा, मंच पर पहुंचा और उस वक्ता का कान पकड़कर उसके गाल पर तीन तमाचे जड़ दिये ।
  • आयोजक तथा उनके आदमी आये और केशव का हाथ पकड़ने लगे केशव ने हाथ पकड़नेवाले को भी तमाचे जमा दिये । केशव का यह शौर्य देशभक्ति और आत्मनिर्भरता देखकर मौलवी लियाकत हुसैन बोल उठे : “आफरीन है, आफरीन है ! भारत के लाल ! आफरीन है ।”
  • लियाकत हुसैन दौड़ पड़े और केशव को गले लगा लिया, फिर बोले : “आज से आप और हम जिगरी दोस्त ! मेरा कोई भी कार्यक्रम होगा उसमें मैं आपको बुलाऊँ तो क्या आप आयेंगे ?”
  • केशव : “क्यों नहीं, भैया ! हम सभी भारतवासी हैं ।”
  • जब भी लियाकत हुसैन कार्यक्रम करते, तब केशव को अवश्य बुलाते और केशव अपने साथियों सहित भगवाध्वज लेकर उनके कार्यक्रम में जाते । वहाँ ‘वंदे मातरम्’ की ध्वनि से आकाश गूंज उठता था ।
  • यह साहसी, वीर, निडर, धैर्यवान और बुद्धिमान बालक केशव और कोई नहीं – केशवराव बलिराम हेडगेवार ही थे, जिन्होंने आगे चलकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर. एस. एस.) की स्थापना की; जिनके संस्कार आज दुनिया भर के बच्चों और जवानों के दिल तक पहुँच रहे हैं ।
    – ऋषि प्रसाद, अगस्त 2002