लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक (Bal Gangadhar Tilak) तेजस्वी राजनेता तो थे ही, साथ ही धर्म और अध्यात्म में भी उनकी गहरी रूचि थी। ‘गीता’ पर उनकी कर्मप्रेरक टीका सुप्रसिद्ध ही है। जब वे राजद्रोह के आरोप में मांडले जेल में बंद थे, तब उन्होंने जेल में ही “श्रीमद् भगवद् गीता” का गहन अध्ययन किया और उस पर साहित्य भी लिखा। कारागार से मुक्त होकर जब वे पूना पहुँचे तो वहाँ उनका खूब स्वागत-सत्कार किया गया।
एक नेता ने मुस्काराते हुए तिलकजी से पूछा :”श्रीमान् ! यदि भारत स्वाधीन हो गया तो आप प्रधानमंत्री या गृहमंत्री में से किस पद को स्वीकार करना पसंद करेंगे ?”
तिलकजी ने उत्तर दिया :
“मैंने धर्मशास्त्रों और गीता से प्रेरित होकर मातृभूमि को विदेशी अंग्रेजों से स्वाधीन कराने के उद्देश्य से स्वाधीनता आंदोलन में भाग लिया है। जेल में जब मैंने गीता, पुराणों तथा उपनिषदों का अध्ययन किया तो मैं इस परिणाम में पहुँचा कि जीवन का अंतिम लक्ष्य प्रभुभक्ति व जनसेवा ही है। इसलिए मैंने निश्चय किया है कि छल-कपट, वासना और अधर्म बढ़ानेवाले राजनैतिक पचड़े में नहीं पड़ूँगा। इस पचड़े में पड़कर न भक्ति हो सकती है, न नि:स्वार्थ सेवा। मैं स्वराज्य मिलते ही अपना तमाम समय भगवान की भक्ति एवम् सत्साहित्य और शास्त्रों के अध्ययन में लगाकर अपना जीवन सार्थक बनाऊँगा।”
~लोक कल्याण सेतु/मई-जून २०१०