– स्वामी अखंडानंदजी सरस्वती
श्री हनुमानजी की अपने इष्ट श्रीरामजी के चरणों में अनन्य प्रीति थी । मानव-जीवन के परम लक्ष्य परमात्मप्राप्ति के लिए सेवक का अपने स्वामी, शिष्य का अपने गुरुदेव के चरणों में कैसा समर्पण होना चाहिए इसकी सुंदर प्रेरणा तो हमें उनके जीवन से मिलती ही है, साथ ही व्यवहार कुशलता की रीत भी हमें हनुमानजी से सीखने को मिलती है ।
‘श्री रामचरितमानस’ के सुंदरकांड में आता है कि सीताजी की खोज करते हुए हनुमानजी जब अशोक वाटिका पहुंचे तो जिस वृक्ष के नीचे सीताजी बैठी थीं उसी पर जा बैठते हैं और धीरे से रामचन्द्रजी द्वारा दी गयी अंगूठी नीचे गिरा देते हैं । सीताजी उस रामनाम-अंकित मुद्रिका को देखकर हर्षित तो होती हैं पर उनके मन में कई संकल्प विकल्प भी होते हैं । यह देख हनुमानजी पेड़ पर बैठे-बैठे ही श्रीरामजी के गुणों का सुंदर वर्णन करने लगते हैं, जिसको सुनकर सीताजी का सारा दुःख भाग जाता है और सीताजी कह उठती हैं कि “जिन्होंने इतनी सुंदर कथा सुनायी वे प्रकट क्यों नहीं होते ?” लेकिन जब हनुमानजी सीताजी के सामने आते हैं तो सीताजी मुँह मोड़ लेती हैं । वे सोचती हैं कि ‘कहीं रावण ही रूप बदलकर तो नहीं आ गया !’ तब हनुमानजी सीताजी की शंकाओं का समाधान करते हुए कहते हैं कि राम दूत मैं मातु जानकी ।
पहला सम्बोधन किया ‘मातु जानकी’, आप मेरी माँ हो और मैं रामचन्द्रजी का दूत हूँ । सत्य सपथ करुनानिधान की । अपने प्रिय व्यक्ति की सौगंध खायी जाती है, तो बोले कि ‘सत्य शपथ है ।’ किसकी ? ‘करुणानिधान की ।’
‘माता ! मैं यह मुद्रिका लेकर आया हूँ और श्रीरामचन्द्रजी ने यह आपके लिए दी है, जिससे आप हमको ठीक-ठीक पहचान सको ।’ अब सीताजी को पूर्ण विश्वास होता है कि ये रामजी के दूत हैं ।
यह हनुमानजी की व्यवहार-कुशलता है कि वे सीधे सीताजी के सामने जाकर खड़े नहीं हुए बल्कि धीरे-धीरे उनका विश्वास सम्पादन किया ।
तब जानकीजी हनुमानजी से पूछती हैं कि “लक्ष्मण सहित श्रीरामचन्द्रजी सुख से तो हैं न ?” यहाँ ऐसा प्रसंग है कि यदि वे यह बात कह दें कि ‘रामचन्द्रजी बहुत कुशल हैं, उनको कोई तकलीफ नहीं है ।’ तो जानकीजी को बड़ा दुःख हो जायेगा, सोचेंगी : ‘मैं तो यहाँ उनके लिए इतनी दुःखी हो रही हूँ और वे वहाँ बड़ी मौज में हैं ।’ और यदि वे यह बात कह दें कि ‘रामचन्द्रजी तो बड़े ही दुःखी हैं ।’ तब तो जानकीजी का हृदय फट जाय । न दुःखी कहा जा सकता है, न सुखी कहा जा सकता है । सुखी कहें तो प्रेम की कमी है और दुःखी कहें तो जानकीजी को बड़ी पीड़ा पहुँचे । तो सँभालकर बोलते हैं :
मातु कुसल प्रभु अनुज समेता ।
तव दुख दुखी सुकृपा निकेता ॥
‘हे माँ ! प्रभु अपने भाई सहित सकुशल हैं । वे केवल आपके दुःख से दुःखी हैं, और उनको कोई दुःख नहीं है ।’
देखो, दोनों बातें सँभल गयीं । इससे हनुमानजी की बुद्धिमत्ता प्रकट होती है ।
किसी का संदेश दूसरे तक किस प्रकार पहुँचाया जाता है, इस कला में हनुमानजी की निपुणता इस प्रसंग से स्पष्ट होती है ।
भगवान श्रीरामजी ने हनुमानजी से कहा था कि ‘कहि बल बिरह बेगि तुम्ह आएहु ।’ हमारा बल भी बताना जिससे आश्वासन मिले और हमारा विरह और प्रेम भी बताना जिससे अविश्वास न हो ।’ इस पर हनुमानजी सोचते हैं कि ‘बिना रामचन्द्रजी के शब्दों में कहे संदेश को ठीक-ठीक नहीं पहुँचाया जा सकता और रामचन्द्रजी जैसा कहते हैं, वैसा दूसरा कोई अपनी ओर से कह नहीं सकता ।’ इसलिए वे रामजी के शब्दों में ही कहते हैं :
‘मो कहुँ सकल भए बिपरीता ।’
हे सीता ! तुम्हारे वियोग में सब कुछ विपरीत हो गया है।
‘कहेहू तें कछु दुख घटि होई ।’
कहने से भी दुःख कुछ कम होता है परंतु कहूँ किससे ? यह हृदय की बात, यह प्रेम की पीड़ा जिस किसी से कहने की तो नहीं होती, सो किससे कहूँ ? यह बात कोई समझ नहीं सकता ।
प्रभु का यह संदेश सुनकर जानकीजी प्रेम में अति मग्न तो हो गयीं लेकिन विरह की पीड़ा से बहुत दुःखी भी हो गयीं ।
विरह का यह दुःख कैसे दूर हो, इसके लिए हनुमानजी कहते हैं कि “माता ! आप अपने हृदय में धीरज धारण करिये और श्रीरामचन्द्रजी का सुमिरन करिये । जो उनकी सेवा (सुमिरन, भक्ति) करता है, वे उसको सुख देने वाले हैं । इसलिए अब आप अपने हृदय में श्री रघुपतिजी के प्रभाव को ले आइये और मेरा वचन सुनिये ।
यह राक्षसों का समूह भुनगों (पतंगों) का समूह है और रघुपति के बाण धधकती हुई आग । आग के पहुँचने की देर है, भुनगे स्वयं ही आग में आ पड़ेंगे । अतः धैर्य धारण कीजिये ।”
श्री हनुमानजी के वचन सुनकर सीताजी का सारा दुःख दूर हो जाता है और वे प्रसन्न हो के हनुमानजी को कई वरदान भी देती हैं । श्री हनुमानजी के जीवन का यह सुंदर प्रसंग हमें लौकिक व्यवहार में सफल होने की सुंदर प्रेरणा देता है ।
➢ लोक कल्याण सेतु, मार्च 2014