“जिस क्षण आप निज विवेक का आदर करेंगे उसी क्षण आपके सब दुःख दूर हो जायेंगे।” -पूज्य संत श्री आशारामजी बापूजी

अंग्रेजी शासन में न्यायमूर्ति महादेव गोविंद रानाडे (Justice Mahadev Govind Ranade) का नाम सुविख्यात था। अंग्रेजों की नौकरी करते हुए भी उन्होंने अपनी संस्कृति के स्वाभिमान तथा राष्ट्रनिष्ठा में कमी नहीं आने दी। वे अंग्रेजों की पश्चिमी सभ्यता तथा गुलामी की मानसिकता से अप्रभावित थे क्योंकि उन्हें अपने देश की सनातन संस्कृति की गौरवमयी महानता का ज्ञान था।

न्यायमूर्ति महादेवजी का स्थानांतरण कोल्हापुर (महाराष्ट्र) के न्यायालय में हुआ। कोल्हापुर में ही उनका परिवार भी रहता था। न्याय के संबंधित कार्य में वे किसी का भी हस्तक्षेप सहन नहीं करते थे। उनके पिताजी अपने पुत्र की धर्मनिष्ठा, देशभक्ति, सेवा में तत्परता तथा न्याय परायणता देखकर अति प्रसन्न रहते थे। 

एक बार एक रिश्तेदार महादेवजी के घर आये और उनके पिताजी को अपने एक मुकदमे के बारे में बताया। पिताजी ने महादेवजी से कहा :”बेटा ! इतना काम हो जाना अत्यावश्यक है।”

महादेवजी चुप रहे। रिश्तेदार  ने चुप्पी को भाँपते हुए कहा :”यदि आपको अभी समय न हो तो मैं बाद में आकर आपको सारे कागजात दिखा दूँगा।”
महादेव जी ने कहा :”हाँ, आप बाद में दिखा दें, अभी मैं दूसरे कार्यों में व्यस्त हूँ।”

रिश्तेदार चले गये, तब महादेवजी ने अपने पिताजी के चरण छूकर कहा:
“कोल्हापुर में हमारे बहुत-से रिशतेदार तथा मित्र रहते हैं। मैंने अथवा आपने थोड़ी-सी भी छूट दी तो हर कोई आयेगा और अपने मुकदमे के लिए किसी-न-किसी प्रकार दबाव डालेगा। अगर हम एक बार दलदल में गिरे तो फिर उलझते ही जायेंगे। ‘छिद्रेश्वनर्था बहुली भवन्ति’ यह युक्ति तो प्रसिद्ध है। यदि आप ऐसा प्रस्ताव देंगे तो मुझे स्थानांतरण के लिए तत्काल प्रयत्न करना पड़ेगा। किसी भी मुकदमे से सम्बंधित व्यक्ति से घर पर न मिलने का तथा उससे व्यक्तिगत बातचीत न करने का मेरा नियम है और न्याय में सत्य का पक्ष लेना ही मेरा परम कर्तव्य है। मैं अपने कर्तव्यपथ पर ठीक से चलूँ, उसे सँभालने का उत्तरदायित्व जितना मुझ पर है, उतना ही मेरे पिता होने के नाते आप पर भी है ।”

पिताजी ने सुन तो रखा था कि यह न्याय-कार्य में किसी का भी हस्तक्षेप सहन नहीं करता पर पिता की बात भी नहीं मानेगा ऐसी कल्पना उन्होंने नहीं की थी।

पुनः विनम्रतापूर्वक बोले : “पिताजी ! बुद्धि, धैर्य और यादशक्ति – इन तीनों की अवहेलना करके जो व्यक्ति शारीरिक अथवा मानसिक असत्य कार्यों को करता है ,भूलें करता है उसे अंत:करण की अवहेलना कहा जाता है, जिससे अंतरात्मा लानत बरसाता है तथा यही दोष शारीरिक और मानसिक संतुलन को बिगाड़ता है जिसके कारण मानसिक एवं शारीरिक रोग होते हैं इससे घर में अशांति आयेगी। क्या आप ऐसा चाहते हैं पिताजी ?”

बेटे की गौरवमयी तथा सुस्पष्ट वाणी सुनकर पिताजी का हृदय गदगद हो उठा। उन्होंने जीवन में दुबारा ऐसा कोई अवसर नहीं आने दिया।

~ऋषि प्रसाद/अगस्त २०१३