Raja Bali Vamana Avatar Story/ Katha in Hindi: Vamana Jayanti 2022 Special:
➢ भक्तशिरोमणि प्रह्लाद के पुत्र विरोचन से महाबाहु बलि का जन्म हुआ । बलि महाबलवान, धर्मज्ञ, सत्यप्रतिज्ञ, जितेन्द्रिय, नित्य धर्मपरायण, पवित्र और श्रीहरि के प्रियतम भक्त थे । उन्होंने इन्द्र सहित सम्पूर्ण देवताओं और मरुद्गणों को जीतकर तीनों लोकों को अपने अधीन कर लिया था । बलि को अपने बल का बड़ा अभिमान था ।
➢ इधर महर्षि कश्यप अपने पुत्र इन्द्र को राज्य से वंचित् देख उनके हित की इच्छा से भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिए अपनी पत्नी- सहित तपस्या करने लगे । उनकी तपस्या से संतुष्ट होकर भगवान विष्णु भगवती लक्ष्मी के साथ प्रगट हो गये एवं उन्होंने महर्षि कश्यप से वरदान माँगने को कहा ।
➢ तब कश्यपजी बोले : ‘‘भगवान ! दैत्यराज बलि ने तीनों लोकों को बलपूर्वक जीत लिया है । आप मेरे पुत्र होकर देवताओं का हित कीजिए । किसी भी उपाय से बलि को परास्त करके मेरे पुत्र इन्द्र को त्रिलोकी का राज्य प्रदान कीजिए ।‘‘
➢ भगवान विष्णु : ‘‘तथास्तु ।’’
समय पाकर विष्णुजी ने ही कश्यप की धर्मपत्नी अदिति की कोख से ब्रह्मचारी वामन के रूप में अवतार लिया । उनके जन्म के पश्चात् समस्त देवता एवं महर्षियों ने आकर उनकी स्तुति की । तब भगवान वामन ने प्रसन्न होकर उन देवताओं से कहा : ‘‘देवताओं ! बताइए, इस समय मुझे क्या करना है ?’’
➢ देवता बोले : ‘‘भगवान ! इस समय राजा बलि यज्ञ कर रहा है । अतः ऐसे अवसर पर वह कुछ देने से इन्कार नहीं कर सकता । प्रभो ! आप दैत्यराज से तीनों लोक माँगकर इन्द्र को देने की कृपा करें ।’’
➢ भगवान ने कहा : ‘‘ठीक है ।’’
क्या भगवान की भक्तवत्सलता है ! समस्त सृष्टि के निर्माता स्वयं कुछ माँगने चले हैं । देवताओं के कहने पर भगवान वामन बलि की यज्ञशाला में पहुँचे ।
➢ भगवान वामन को ब्रह्मचारी के रूप में आया देखकर बलि सहसा उठकर खड़े हो गये एवं अर्घ्यपाद्य से उनका पूजन किया और बोले : ‘‘हे विप्रवर ! आपके दर्शन से मैं कृतार्थ हुआ । कहिए, मैं आपका कौन-सा प्रिय कार्य करूँ ? हे द्विजश्रेष्ठ ! आप जिस वस्तु को पाने के उद्देश्य से मेरे पास पधारे हैं, उसे शीघ्र बताइए । मैं अवश्य दूँगा ।’’
➢ भगवान वामन बोले : ‘‘महाराज ! मुझे केवल तीन कदम भूमि का दान दीजिए क्योंकि भूमिदान सब दानों में श्रेष्ठ है । इससे दाता और याचक दोनों स्वर्गगामी होते हैं ।’’
यह सुनकर बलि ने प्रसन्नतापूर्वक कहा : ‘‘बहुत अच्छा ।’’
➢ तत्पश्चात् बलि ने विधिपूर्वक भूमिदान का संकल्प किया । बलि को ऐसा करते देख उनके पुरोहित शुक्राचार्यजी बोले : ‘‘राजन् ! ये कोई साधारण ब्रह्मचारी नहीं अपितु स्वयं भगवान विष्णु हैं और तीन कदम भूमि में तुम्हारा संपूर्ण राज्य हड़प लेना चाहते हैं । अतः तुम इन्हें कोई और वस्तु दान करो, भूमि मत दो ।’’
➢ बलि : ‘‘गुरुवर ! इससे अधिक भाग्य की बात और क्या हो सकती है कि जिनकी प्रसन्नता के लिये मैं यह यज्ञ कर रहा हूँ वे ही भगवान विष्णु स्वयं याचक बनकर पधारे हैं ! आज मैं धन्य हो गया । उनके लिये तो मुझे मेरा जीवन तक दे डालने में संकोच न होगा । अतः आज इन ब्राह्मण देवता को मैं तीन लोक तक दे डालने में संकोच नहीं करूँगा ।’’
➢ ऐसा कहकर बलि ने बड़े प्रेम से ब्राह्मणरूपधारी भगवान विष्णु का पूजन किया एवं हाथ में जल लेकर भूमि-दान का संकल्प किया और बोले : ‘‘हे ब्रह्मन् ! आज आपको भूमिदान देकर मैं अपने को धन्य मानता हूँ । आप अपनी इच्छानुसार इस पृथ्वी को ग्रहण करें ।’’
➢ बलि के इतना कहने पर भगवान ने अपना वामन रूप त्याग कर विराट रूप धारण कर लिया और एक कदम में पूरी पृथ्वी तथा दूसरे कदम में पूरे स्वर्ग को आवृत्त कर लिया । फिर बोले : ‘‘बलि ! अब तीसरा कदम कहाँ रखूँ ?’’
बलि : ‘‘भगवान ! कृपा करके अपना तीसरा कदम मेरे सिर पर रख दीजिए ।’’
➢ बलि की सत्यवादिता से प्रसन्न होकर भगवान बोले : ‘‘हे बलि ! तुम मेरे परम भक्त हो । सावर्णि मन्वन्तर में तुम इन्द्र बनोगे । तब तक विश्वकर्मा के बनाये हुए सुतल लोक में रहो । वहाँ मैं स्वयं तुम्हारी, तुम्हारे अनुचरों की और भोगसामग्री की भी सब प्रकार के विघ्नों से रक्षा करूँगा । हे वीर बलि ! तुम वहाँ सदा-सर्वदा मुझे अपने पास ही देखोगे । मेरे प्रभाव से तुम्हारा आसुरी भाव नष्ट हो जायेगा ।’’
➢ भगवान की आज्ञा पाकर बलि सुतल लोक को चले गये । इस प्रकार भगवान ने बलि से स्वर्ग का राज्य लेकर इन्द्र को दे दिया और स्वयं उपेन्द्र बनकर सारे जगत पर शासन करने लगे ।
भगवान वामन की कृपा से इन्द्र ने तो अपना खोया हुआ राज्य पा ही लिया और बलि की सत्यनिष्ठा से प्रसन्न होकर भगवान स्वयं उनके द्वारपाल बनने को तैयार हो गये । क्या भगवान की करुणा है ! क्या उनकी उदारता है कि उन्हें अपने भक्त का द्वारपाल बनने तक में संकोच नहीं है ! वे ही प्रभु अंतर्यामी होकर हमारे अंतःकरण में भी द्वारपाल बने हुए हैं । शुभ विचार, शुभ प्रवृत्ति से वे प्रसन्न होते हैं और भीतर ही भीतर सामर्थ्य देते हैं । अशुभ विचार, अशुभ प्रवृत्तियों को रोकते-टोकते हैं । काश ! उन वामन को, उन नन्हें नारायण अंतर्यामी ईश्वर को अपना परम सुहृद, परम हितैषी, परम प्रेमास्पद जानकर बलि की नाईं उन्हीं की प्रसन्नता हमारा जीवन हो जाये तो फिर वे हमसे दूर नहीं और हम उनसे दूर नहीं, वे हमसे अलग नहीं और हम उनसे अलग नहीं… यह बोध भी आसान हो जायेगा ।
➢ स्रोत :- ऋषि प्रसाद, सितम्बर 1997