~पूज्य संत श्री आशारामजी बापू 

आत्मविकास (Self Development) करना हो, आत्मबल बढ़ाना हो और अपना कल्याण करना हो तो विद्यार्थियों को 15 बातों पर ध्यान देना चाहिए….:-

संकल्पः संकल्प में अथाह सामर्थ्य है। दृढ़ संकल्पवान मनुष्य हर क्षेत्र में सफल और हर किसी का प्यारा हो सकता है। आत्मबल बढ़ाने के लिए कोई भी छोटा-मोटा जो जरूरी है, वह संकल्प करें।

दृढ़ताः अपनी योग्यता, आवश्यकता और बलबूते अनुसार संकल्प करें और फिर छोड़ें नहीं, उसको पूरा करें। मैं हिमालय में एक ऐसी जगह पर पहुँचा कि जहाँ 15-20 कदम चलो तो श्वास फूले। ऑक्सीजन कम थी और मेरे पास सामान भी था। मैं बार-बार थोड़ा रूक जाऊँ, सामान रखकर थोड़ा आराम करूँ फिर चलूँ। मुझे जाना था बस पकड़ने के लिए। मैंने सोचा ऐसे रुकते-रुकते जाऊँगा तो बस भी चली जायेगी, रात को ठंड में कहाँ भटकना !ʹ संकल्प किया कि ʹजब तक बस स्टैंड नहीं आयेगा तब तक हाथ में से सामान नीचे नहीं रखूँगा।ʹ शक्ति (बलबूते) के अनुसार थोड़ा दम तो मारना पड़ा लेकिन कैसे भी करके वहाँ पहुँच गये। दृढ़ता से कार्य सम्पादन करने पर संतोष होता है। जो भी अच्छा काम ठान लें, बस उसमें दृढ़ रहें। इससे आत्मबल बढ़ता है और आत्मबल बढ़ने से संकल्प फलित होता है।

निर्भयताः भय मृत्यु है, निर्भयता ही जीवन है। दुर्बलता को अपने जीवन में स्थान मत दो। जो डरता है उसे दुनिया डराती है। भय आते ही ʹभय मन में है, मैं निर्भय हूँ।ʹ – ऐसे शुद्ध ज्ञान के विचार करो। छोटी सी पुस्तक ʹजीवन रसायनʹ जेब में रखो और बार-बार पढ़ो। यह तुम्हें निर्भिक व निर्दुःख बना देगी। जो भी डरपोक हैं, उनको भी ʹजीवन रसायनʹ पुस्तक भेज दो। यह बड़ी सेवा है। जिनके स्वभाव और घर में झगड़ा हो उऩ्हें ʹमधुर व्यवहारʹ पुस्तक, जहाँ मृत्यु और शोक है वहाँ ʹमंगलमय जीवन मृत्युʹ जिनको ईश्वर की ओर बढ़ना है उनको ʹईश्वर की ओरʹ और जिनको जीवन में विकास करना है उनको ʹजीवन विकासʹ पुस्तक पहुँचायें।

ज्ञानः आत्मा-परमात्मा और प्रकृति का ज्ञान पाने से भी आत्मबल बढ़ता है। जब सदगुरु सत्संग से आंतरिक ज्ञान की ज्योति प्रज्जवलित कर देते हैं तो वह पापों को जलाकर जीवन में प्रकाश, शांति और माधुर्य ले आती है।

– सत्यस्वरूप परमात्मा का चिंतनः ʹजो साक्षी है, सत् है, चेतन है, जो कभी मरता नहीं, बिछुड़ता नहीं और बेवफाई नहीं कर सकता, उस परमात्मा के साथ मेरा नित्य योग है और मरने, बिछुड़ने, बेवफाई करने वाले संसार और शरीर के साथ नित्य वियोग है।ʹ – ऐसे चिंतन से भी आत्मबल विकसित होता है।

श्रद्धाः भगवान, भगवत महापुरुष, शास्त्र, गुरुमंत्र और अपने-आप पर श्रद्धा आत्मविकास व परम सुख की अमोघ कुंजी है।

ईश्वरीय विकासः सत्संग, भगवन्नाम जप, ध्यान एवं व्रत-उपवास से ईश्वरीय विकास होता है। ईश्वरीय अंश विकसित होने पर समता, नम्रता, प्रसन्नता, उदारता, परोपकार, आत्मबल आदि दैवी गुण स्वाभाविक ही आ जाते हैं।

सदाचारः जैसा व्यवहार आप दूसरों से अपने प्रति नहीं चाहते हो, वही ʹदुराचारʹ है। जैसा व्यवहार आप दूसरों से अपने प्रति चाहते हो, वही ʹसदाचारʹ है। दूसरों को मान देना, आप अमानी रहना – यह सफलता की कुंजी है। झूठ-कपट, बेईमानी, दुराचार से नहीं, सदाचार से, आत्मविकास होता है। बस, आप सत्कर्म करते रहो, सदाचारयुक्त जीवन जियो और अपने आत्मस्वभाव, ʹसोઽहंʹ स्वभाव में स्थित होने का प्रयत्न करते जाओ, इसी से आपका कल्याण होगा।

सच्चाई का आचरणः सत्य, मधुर एवं हितकर वाणी से सदगुणों का पोषण होता है, मन पवित्र व बुद्धि निर्मल बनती है। तुम्हारी वाणी में जितनी सच्चाई होगी उतनी ही तुम्हारी और तुम जिससे बात करते हो उसकी आध्यात्मिक उन्नति होगी।

संयमः जीवन के विकास का मूल संयम है। जिसके जीवन में संयम नहीं है, वह न तो स्वयं की ठीक से उन्नति कर पाता है और न ही समाज में कोई महान कार्य कर पाता है। हाथों-पैरों का संयम, वाणी का संयम, संकल्प-विकल्पों का संयम और ब्रह्मचर्य का पालन-इनसे आत्मविकास होता है। मौन है, नहीं बोलना है तो नहीं बोलना है। एकादशी है, अऩ्न नहीं खाना है तो नहीं खाना है। संकल्प-विकल्प रोकने के लिए बार-बार दीर्घ प्रणव का जप करना चाहिए। आश्रम की पुस्तक ʹदिव्य प्रेरणा प्रकाशʹ में ब्रह्मचर्य के लिए निर्दिष्ट उपायों का अवलम्बन लेकर ब्रह्म परमात्मा में पहुँचना चाहिए। सुबह जल्दी उठें, ध्यान भजन करें, दीर्घ प्रणव का जप करें तो सत्त्वगुण बढ़ जाता है। इससे आत्मविकास होता है।

अहिंसाः किसी को मन से, शरीर से, वचन से दुःख न पहुँचाना अहिंसा है।

दयाः जो दूसरों का दुःख मिटाकर आनंद पाता है, उसको अपना दुःख मिटाने हेतु अलग से मेहनत नहीं करनी पड़ती। यदि तुम्हारा दिल परोपकार की भावना से ओतप्रोत हो, निर्भयता और निष्कामता से भरा हो तो प्रकृति तुम्हारे अनुकूल होने को तत्पर रहती है। इसीलिए सबके मंगल के लिए दयाभाव रखो।

सेवाः महापुरुषों, गुरुओं या किसी की भी निःस्वार्थ सेवा से आत्मबल बढ़ता है। सेवा का अपना आनंद, औदार्य, पुण्य व प्रभाव है। ईमानदारी की सेवा से अंतःकरण शुद्ध होता है। सेवा में दिखावा न हो। लौकिक दुनिया में चाहे आध्यात्मिक जगत में, सेवा के बिना प्रगति सम्भव ही नहीं है।

न्यायः न्याय के पक्ष में रहने से भी आत्मबल बढ़ता है। स्वार्थरहित, कामना रहित होकर, दूसरों का हित हो यह ध्यान रख के न्याय करो तो आपको आत्मसंतोष मिलेगा। अपने लिए न्याय, औरों के लिए उदारता की नीति जो बर्तता है, उसका बड़प्पन खूब मिलता है।

परमात्म-प्रेम का विकासः प्रेम में अपनत्व होता है, विश्वास होता है, परमात्मा प्रेम से प्रकट होते हैं। बुद्धि में परमात्म-प्रेम की जागृति ही मनुष्य जीवन का लक्ष्य होना चाहिए। परमात्मा में, गुरु में प्रीति करने से आत्मबल, आत्मसुख बहुत बढ़ता है। जितना हम निष्काम, निःस्वार्थ, गुरुप्रेमी, प्रभुप्रेमी होते हैं, उतना ही हमारी बुद्धि में गुरु का, प्रभु का प्रसाद विकसित होता है।

तुम अगर चाहो तो अपने जीवन को उत्साह एवं तत्परता से भरकर भारत माता के महान सपूत बन सकते हो। तुम ठान लो, प्रतिभा विकसित करो। ईश्वर का असीम बल तुम में छुपा है। ૐ…ૐ..ૐ…ૐ

~स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2013, पृष्ठ संख्या 11, अंक 245