हमारे सदगुरुदेव परम पूज्य लीलाशाहजी महाराज (Leela shah ji Maharaj) के जीवन की एक घटना बताता हूँ……….
सिंध में उन दिनों किसी जमीन की बात में हिन्दू और मुसलमानों का झगड़ा चल रहा था | उस जमीन पर नीम का एक पेड़ खड़ा था, जिससे उस जमीन की सीमा-निर्धारण के बारे में कुछ विवाद था |
हिन्दू और मुसलमान कोर्ट-कचहरी के धक्के खा-खाकर थके | आखिर दोनों पक्षों ने यह तय किया कि यह धार्मिक स्थान है | दोनों पक्षों में से जिस पक्ष का कोई पीर-फकीर उस स्थान पर अपना कोई विशेष तेज, बल या चमत्कार दिखा दे, वह जमीन उसी पक्ष की हो जायेगी |
पूज्य लीलाशाहजी बापू का नाम पहले ‘लीलाराम’ था | लोग पूज्य लीलारामजी के पास पहुँचे और बोले: “हमारे तो आप ही एकमात्र संत हैं | हमसे जो हो सकता था वह हमने किया, परन्तु असफल रहे | अब समग्र हिन्दू समाज की प्रतिष्ठा आपश्री के चरणों में है |
इंसाँ की अज्म से जब दूर किनारा होता है |
तूफाँ में टूटी किश्ती का एक भगवान किनारा होता है ||
अब संत कहो या भगवान कहो, आप ही हमारा सहारा हैं | आप ही कुछ करेंगे तो यह धर्मस्थान हिन्दुओं का हो सकेगा |”
संत तो मौजी होते हैं | जो अहंकार लेकर किसी संत के पास जाता है, वह खाली हाथ लौटता है और जो विनम्र होकर शरणागति के भाव से उनके सम्मुख जाता है, वह सब कुछ पा लेता है | विनम्र और श्रद्धायुक्त लोगों पर संत की करुणा कुछ देने को जल्दी उमड़ पड़ती है |
पूज्य लीलारामजी उनकी बात मानकर उस स्थान पर जाकर भूमि पर दोनों घुटनों के बीच सिर नीचा किये हुए शांत भाव से बैठ गये |
विपक्ष के लोगों ने उन्हें ऐसी सरल और सहज अवस्था में बैठे हुए देखा तो समझ लिया कि ये लोग इस साधु को व्यर्थ में ही लाये हैं | यह साधु क्या करेगा …? जीत हमारी होगी |
पहले मुस्लिम लोगों द्वारा आमंत्रित पीर-फकीरों ने जादू-मंत्र, टोने-टोटके आदि किये | ‘अला बाँधूँ बला बाँधूँ… पृथ्वी बाँधूँ… तेज बाँधूँ… वायु बाँधूँ… आकाश बाँधूँ… फूऽऽऽ‘ आदि-आदि किया | फिर पूज्य लीलाराम जी की बारी आई |
पूज्य लीलारामजी भले ही साधारण से लग रहे थे, परन्तु उनके भीतर आत्मानन्द हिलोरे ले रहा था | ‘पृथ्वी, आकाश क्या समग्र ब्रह्माण्ड में मेरा ही पसारा है… मेरी सत्ता के बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकता… ये चाँद-सितारे मेरी आज्ञा में ही चल रहे हैं… सर्वत्र मैं ही इन सब विभिन्न रूपों में विलास कर रहा हूँ…’ ऐसे ब्रह्मानन्द में डूबे हुए वे बैठे थे |
ऐसी आत्ममस्ती में बैठा हुआ किन्तु बाहर से कंगाल जैसा दिखने वाला संत जो बोल दे, उसे घटित होने से कौन रोक सकता है ?
वशिष्ठ जी कहते हैं : “हे रामजी ! त्रिलोकी में ऐसा कौन है, जो संत की आज्ञा का उल्लंघन करके सुखी रह सके ?”
जब लोगों ने पूज्य लीलारामजी से आग्रह किया तो उन्होंने धीरे से अपना सिर ऊपर की ओर उठाया | सामने ही नीम का पेड़ खड़ा था | उस पर दृष्टि डालकर गर्जना करते हुए आदेशात्मक भाव से बोल उठे :
ऐ नीम ! इधर क्या खड़ा है ? जा उधर हटकर खड़ा रह |”
बस उनका कहना ही था कि नीम का पेड ‘सर्रर्र… सर्रर्र…’ करता हुआ दूर जाकर पूर्ववत् खड़ा हो गया |
लोग तो यह देखकर आवाक रह गये ! आज तक किसी ने ऐसा चमत्कार नहीं देखा था | अब विपक्षी लोग भी उनके पैरों पर पड़ने लगे | वे भी समझ गये कि ये कोई सिद्ध महापुरुष हैं |
वे हिन्दुओं से बोले : “ये आपके ही पीर नहीं हैं बल्कि आपके और हमारे सबके पीर हैं | अब से ये ‘लीलाराम’ नहीं किंतु ‘लीलाशाह’ हैं |”
तब से लोग उनका ‘लीलाराम’ नाम भूल ही गये और उन्हें ‘लीलाशाह’ नाम से ही पुकारने लगे |
लोगों ने उनके जीवन में ऐसे-ऐसे और भी कई चमत्कार देखे |
वे 13 वर्ष की उम्र पार करके ब्रह्मलीन हुए | इतने वृद्ध होने पर भी उनके सारे दाँत सुरक्षित थे, वाणी में तेज और बल था | वे नियमित रूप से आसन एवं प्राणायाम करते थे | मीलों पैदल यात्रा करते थे | वे आजन्म ब्रह्मचारी रहे | उनके कृपा-प्रसाद द्वारा कई पुत्रहीनों को पुत्र मिले, गरीबों को धन मिला, निरुत्साहियों को उत्साह मिला और जिज्ञासुओं का साधना-मार्ग प्रशस्त हुआ | और भी क्या-क्या हुआ यह बताने जाऊँगा तो विषयान्तर होगा और समय भी अधिक नहीं है |
मैं यह बताना चाहता हूँ कि उनके द्वारा इतने चमत्कार होते हुए भी उनकी महानता चमत्कारों में निहित नहीं है | उनकी महानता तो उनकी ब्रह्मनिष्ठता में निहित थी |
छोटे-मोटे चमत्कार तो थोड़े बहुत अभ्यास के द्वारा हर कोई कर लेता है, मगर ब्रह्मनिष्ठा तो चीज ही कुछ और है | वह तो सभी साधनाओं की अंतिम निष्पति है | ऐसा ब्रह्मनिष्ठ होना ही तो वास्तविक ब्रह्मचारी होना है | मैंने पहले भी कहा है कि केवल वीर्यरक्षा ब्रह्मचर्य नहीं है | यह तो ब्रह्मचर्य की साधना है | यदि शरीर द्वारा वीर्यरक्षा हो और मन-बुद्धि में विषयों का चिंतन चलता रहे, तो ब्रह्मनिष्ठा कहाँ हुई ? फिर भी वीर्यरक्षा द्वारा ही उस ब्रह्मानन्द का द्वार खोलना शीघ्र संभव होता है | वीर्यरक्षण हो और कोई समर्थ ब्रह्मनिष्ठ गुरु मिल जायें तो बस, फिर और कुछ करना शेष नहीं रहता | फिर वीर्यरक्षण करने में परिश्रम नहीं करना पड़ता, वह सहज होता है | साधक सिद्ध बन जाता है | फिर तो उसकी दृष्टि मात्र से कामुक भी संयमी बन जाता है |
संत ज्ञानेश्वर महाराज जिस चबूतरे पर बैठे थे, उसीको कहा: ‘चल…’ तो वह चलने लगा | ऐसे ही पूज्यपाद लीलाशाहजी बापू ने नीम के पेड़ को कहा : ‘चल…’ तो वह चलने लगा और जाकर दूसरी जगह खड़ा हो गया | यह सब संकल्प बल का चमत्कार है | ऐसा संकल्प बल आप भी बढ़ा सकते हैं |