“जिसके जीवन में सत्संग है, वही यह बात समझ सकता है।” -पूज्य संत श्री आशारामजी बापू

किसी सेठ [Seth] ने एक महात्मा से कई बार  प्रार्थना की कि ‘आप हमारे घर में अपने श्रीचरण घुमायें।’

आखिर एक दिन महात्मा जी [Mahatma Ji] ने कह दियाः “चलो, तुम्हारी बात रख लेते हैं। फलानी तारीख को आयेंगे।”

सेठ जी [Seth Ji] बड़े प्रसन्न हो गये। बाबा जी आने वाले हैं इसलिए बड़ी तैयारियाँ की गयीं। बाबा जी के आने में केवल एक दिन ही बाकी था। सेठ ने अपने बड़े बेटे को फोन कियाः “बेटा ! अब तुम आ जाओ।’

बड़े बेटे ने कहाः “पिता जी ! मार्केट बड़ा टाइट है। मनी टाइट है। बैंक में बैलेन्स सेट करना है। पिता जी ! मैं अभी नहीं आ पाऊँगा।”

मझले बेटे ने भी कुछ ऐसा ही जवाब दिया।

सेठ ने अपने छोटे बेटे को फोन किया तब उसने कहाः “पिता जी ! काम तो बहुत हैं लेकिन सारे काम संसार के हैं। गुरु जी आ रहे हैं तो मैं अभी आया।”

छोटा बेटा पहुँच गया संत सेवा के लिए। उसने अन्न, वस्त्र, दक्षिणा आदि के द्वारा गुरुदेव का सत्कार किया और बड़े प्रेम से उनकी सेवा की।

बाबा जी ने सेठ से पूछाः “सेठ ! तुम्हारे कितने बेटे हैं ?”

सेठः “एक बेटा है।”

बाबा जीः “मैंने तो सुना है कि आपके तीन बेटे हैं !”

सेठः “वे मेरे बेटे नहीं हैं। वे तो सुख के बेटे हैं, सुख के क्या वे तो मन के बेटे हैं। जो धर्म के काम में न आयें, संत-सेवा में बुलाने पर भी न आवें वे मेरे बेटे कैसे ? मेरा बेटा तो एक ही है जो सत्कर्म में उत्साह से लगता है।”

बाबा जीः “अच्छा, सेठ ! तुम्हारी उम्र कितनी है ?”

सेठः “दो साल, छः माह और सात दिन।”

बाबा जीः “इतने बड़े हो, तीन बेटों के बाप हो और उम्र केवल दो साल, छः माह और सात दिन !”

सेठः “बाबा जी ! जबसे हमने दीक्षा ली है, जप ध्यान करने लगे हैं, आपके बने हैं, तभी से हमारी सच्ची जिंदगी शुरु हुई है। नहीं तो उम्र ऐसे ही भोगों में नष्ट हो रही थी। जीवन तो तभी से शुरु हुआ जबसे संत-शरण मिली, जबसे सच्चे संत मिले। नहीं तो मर ही रहे थे, गुरुदेव ! मरने वाले शरीर को ही मैं मान रहे थे।”

बाबा जीः “अच्छा सेठ ! तुम्हारे पास कितनी सम्पत्ति है ?”

सेठः “मेरे पास सम्पत्ति कोई खास नहीं है। बस, इतने हजार हैं।”

बाबा जीः “लग तो तुम करोड़पति रहे हो ?”

सेठः “गुरुदेव ! यह सम्पत्ति तो इधर ही पड़ी रहेगी। जितनी सम्पत्ति आपकी सेवा में, आपके दैवी कार्य में लगायी उतनी ही मेरी है।”

कैसी बढ़िया समझ है सेठ की ! जिसके जीवन में सत्संग है, वही यह बात समझ सकता है। बाकी के लोग तो शरीर को ‘मैं’ मानकर, बेटों को मेरे मानकर तथा नश्वर धन को मेरी सम्पत्ति मानकर यूँ ही आयुष्य पूरी कर देते हैं।

~ ऋषि प्रसाद, मई 2002