~पूज्य संत श्री आशारामजी बापू
गोविंद सिंह जी (Guru Gobind Singh Ji) बाल्यावस्था से ही मोह-माया में लिप्त नहीं होते थे। एक बार उनकी माता गुजरी देवी ने उनके हाथों में सोने के बहुमूल्य कंगन पहना दिए। कई दिन बाद अचानक उनकी नजर पुत्र के हाथों पर पड़ी। देखा कि पुत्र का एक हाथ खाली है।
उन्होंने हैरानी से पूछा :”बेटा ! एक कंगन कहाँ गया ?”
बालक गोविन्द बोले : “माताजी ! अभी-अभी एक कंगन गुम हो गया।”
“कहाँ ?” माता गुजरी चौंक पड़ीं और बोली :”वह तो बहुत ही मूल्यवान कंगन है बेटा ! मुझे उस जगह ले चलो जहाँ तुम खेल रहे थे। शायद वही कहीं पड़ा हो।”
” चलिए।”
बालक गोविन्द उन्हें लेकर गंगा-किनारे पहुँचे।
वहाँ उन्होंने दूसरा कंगन उतारा और गंगा की धारा में फेंककर बोले :”माताजी ! वह कंगन वहाँ गुम हुआ था।”
“अरे, तुमने यह क्या किया ! दूसरा कंगन भी फेंक दिया !”
“माताजी ! इस कंगन को फेंककर मुझे ऐसा लग रहा है कि आपने मेरे हाथों में माया की जो बेड़ियाँ पहना दी थीं, उनसे मैं मुक्त हो गया। माँ ! मैं संसार की मोह-माया के बंधनों में बंधना नहीं चाहता। मुझे आप उनसे मुक्त ही रहने दीजिए। अगर मैं इन बंधनों में बंध गया तो पिताजी (तेगबहादुरजी) और गुरु नानकजी के बताये हुए रास्ते पर नहीं चल पाऊँगा।”
तीन-चार वर्ष के नन्हे बालक के त्याग व आंतरिक भाव को माँ अहोभाव से देखती रही।
होनहार बिरवान के होत चिकने पात।
फिर होनहार संत को हृदय से लगा दिया।
~लोक कल्याण सेतु/दिस.-जन. २००६