एक बार श्री रामानुजाचार्य (Ramanujacharya) भगवान के श्रीविग्रह को स्नानादि कराके पोंछ रहे थे। पोंछते-पोंछते उनको ऐसा आभास हुआ कि भगवान की पीठ पर घाव हो गया है। वे काँपने लगे और बोल उठे: “प्रभु…! प्रभु… यह क्या ? आपकी पीठ पर घाव !!”
कथा कहती है कि भगवान ने कहा ‘‘हाँ, मुझे घाव हो गया है और यह तुमने ही मारा है।”
”मैंने ??? मैं आपको कैसे मार सकता हूँ ?”
”तुम्हीं मेरी पीठ पर घाव करते हो”
“प्रभु मुझसे यह घोर अपराध कैसे हुआ ?”
“तुम जब खण्डन-मण्डन करते हो तब भक्ति आदि का मण्डन करते हो और दूसरों का खण्डन करते हो। दूसरों के रूप में भी तो मैं ही हूँ। सारा ब्रह्माण्ड ही जब मेरा स्वरूप है तो दूसरों का खण्डन मेरा ही खण्डन हुआ। इसीलिये मेरी पीठ पर यह घाव हुआ है।”
कहते हैं कि उसके बाद श्री रामानुजाचार्य (Ramanujacharya ) ने कभी किसी को दोषी नहीं ठहराया।
अतः कभी-भी हृदय में राग-द्वेषादि की ग्रंथि नहीं बाँधनी चाहिये। जब अपने को ठीक से जान लोगे तब राग-द्वेषादि का तो कोई सवाल ही नहीं रहेगा। फिर न तुम अपने को अच्छा पाओगे न बुरा, न अज्ञानी पाओगे न ज्ञानी। पूर्ण ब्रह्म ज्ञान होने पर ऐसा नहीं लगेगा कि ये अज्ञानी और मैं ब्रह्मज्ञानी ।
अष्टावक्र जी महाराज कहते हैं:- ”जिस पद को पाये बिना इन्द्रादि देव अपने को रंक मानते हैं। उस पद को पाकर ज्ञानी को हर्ष नहीं होता है, यह भी एक आश्चर्य है।”
यत्पदं प्रेप्सवो दीनाः शक्राद्याः सर्वदेवताः ।
अहो तत्र स्थितो योगी न हर्ष मुपा गच्छति ।।
(अष्टावक्र गीता ४.२)
~ ऋषि प्रसाद/अप्रैल २००१