कहते हैं:
होनहार बिरवान के होत चिकने पात।
➠ होनहार बालक की कुशलता, तेजस्विता एवं स्वर्णिम भविष्य के लक्षण बचपन से ही दिखने लगते हैं । पांडुरंग नाम का बालक ९ महीने की अल्प आयु में ही सुस्पष्ट और शुद्ध उच्चारण से बातचीत करने लगा । डेढ़ वर्ष की उम्र में तो वह बालक अपने पिताजी के साथ गूढ़ प्रश्नोत्तरी करके अपने और पिताजी के ज्ञान-भंडार को टटोलने लगा ।
➠ एक बार अर्थी ले जाते लोगों और उसके पीछे रोती-बिलखती स्त्रियों को देख बालक पांडुरंग ने पिताजी से पूछा : “ये सब क्यों रोते हैं ? और ये लोग किसी को इस तरह क्यों ले जाते हैं ?”
पिता: “बेटा! वह आदमी मर गया है और उसको जलाने के लिए ले जा रहे हैं । इसलिए उसके संबंधी रो रहे हैं।”
“तो क्या आप भी मर जायेंगे ? मेरी माता भी मर जायेगी क्या ?”
पिता ने बात टालते हुए कहा : “हाँ। “
“आपको भी जला देंगे क्या ?”
“हाँ।”
➠ पिता ने संक्षिप्त जवाब और अन्य प्रकार से प्रश्नों को रोकने के प्रयास किये मगर बालक की विचारधारा इन उपायों से रुकी नहीं। उसे तो समाधानकारक उत्तर चाहिए था।
➠ दूसरे दिन जब वैसी ही यात्रा की पुनरावृत्ति होती है तो बालक ने फिर शुरू किया : “पिताजी ! उसको जला क्यों देते हैं ? उसको जलन नहीं होगी क्या ?”
“मर जाने के बाद जलन नहीं होती और दुर्गंध न हो इसलिए उसको जला देते हैं।”
बालक ने और भी ज्यादा गूढ़ प्रश्न पूछा : “मगर वह मर गया माने क्या ?
“किसी का शरीर जब चलना-फिरना बंद हो जाए, जब वह किसी काम का न रह जाए और जब उसमें से जीव चला जाए, तब ‘वह मर गया’ ऐसा कहा जाता है।”
“वह जीव कहाँ जाता है पिताजी ?”
“अवकाश में कहीं इधर-उधर घूमके फिर से जन्म लेता है।”
“वह जन्म लेता है, मर जाता है, फिर लेता है और फिर मर जाता है… ऐसा चक्र चलता ही रहता है क्या ?”
“हाँ।”
➠ बालक के पिता अब परेशान होने लगे परंतु उसकी जिज्ञासा रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। उसने फिर पूछा : “इन सब झंझटों दूर होने का कुछ उपाय नहीं है क्या? जिससे जन्म-मरण छूट जाए ऐसी तरकीब नहीं है क्या ?”
पिता ने भी इन सबसे छूटने के लिए उत्तर दिया : “है, क्यों नहीं ! राम का नाम लेने से सब मुसीबतों से हम पार हो जाते हैं। भगवन्नाम जपने से जन्म-मरण का चक्र छूट जाता है।”
➠ बालक ने इस बात की गाँठ बाँध ली। उस अंतर-बाह्य सभी अंग पुलकित हो उठे। उसको आज भव-भय नाशक भगवन्नाम मिल गया था । उसको मानो वह कुंजी मिल गयी जिससे अंत के सभी द्वार खुलने लगते हैं ।
➠ जिस बालक के में डेढ़ वर्ष की उम्र से ही इस प्रकार के गूढ़ आध्यात्मिक प्रश्न उठे हों, ऐसी सत्य की जिज्ञासा जगी हो, वह आगे चलकर महानता के चरम के छू ले, इसमें क्या आश्चर्य ! और हुआ भी ऐसा ही। यही पांडुरंग सद्गुरु वासुदेवानंद सरस्वती की कृपा से आत्मज्ञान पाकर संत रंग अवधूत महाराज के नाम से प्रसिद्ध हुए। स्वयं तो भवसागर पार हुए, औरों के भी पथ प्रदर्शक बने।
➠ बचपन की निर्दोष जिज्ञासा को यदि भारतीय संस्कृति के शास्त्रों का ज्ञान, सुसंस्कारों की सही दिशा मिल जाए तो सभी ऐसे महान बन सकते हैं क्योंकि मनुष्य जन्म मिला ही ईश्वर प्राप्ति के लिए है । सभी में परमात्मा का अपार सामर्थ्य छुपा हुआ है। धन्य हैं वे माता-पिता जो अपने बालकों को संस्कार सिंचन के लिए ब्रह्मज्ञानी संतों के सत्संग में ले जाते हैं, बाल संस्कार केंद्र में भेजते हैं, भगवान के नाम की महिमा बताते हैं ! वास्तव में वे उन्हें सच्ची विरासत देते हैं । ये ही सुसंस्कार उनके जीवन की पूँजी बन जाते हैं ।
📚ऋषि प्रसाद / नवम्बर 2014