एक शिष्य ने कहा :”हमें इन काँटों से बचकर चलना चाहिए” और वह धीरे-धीरे बचता हुआ पार हो गया ।
दूसरा शिष्य अच्छा खिलाड़ी था । वह कूदता-फांदता काँटों से पार हो गया ।
तीसरे ने सोचा,”मैं भी इनकी तरह काँटों से पार हो सकता हूँ परन्तु ये कांटें यहाँ पड़े रहे तो आने-जाने वालों को कष्ट होगा, उन्हें परेशानी होगी । इन काँटों को हटाकर मार्ग साफ कर देना अपना कर्तव्य है ।”
उसने अपना सामान एक ओर रखा और काँटों को हटाने लगा । उसके हाथों में भी कुछ काँटें चुभे पर वह लगा रहा ।
उसके दोनों साथी कहने लगे :”क्यों परेशान हो रहे हो ? बचकर निकल आओ ।”
किंतु वह उन दोनों की बात अनसुनी कर कांटें हटाने में लगा रहा और पूरे काँटे हटाकर ही रुका ।
आचार्य झाड़ियों के पीछे से उनकी बातें सुन रहे थे । वे सामने आ गये और बोले :”मैनें ही परीक्षा लेने के लिए ये काँटें रास्ते में बिछाये थे । तुम दोनों परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो, यह उत्तीर्ण है । तुम दोनों की शिक्षा अभी पूरी नहीं हुई है ।”
तीसरे शिष्य को आचार्य ने आशीर्वाद देकर विदा किया । पहले दो शिष्यों को अभी और शिक्षा की आवश्यकता बतायी।
📚लोक कल्याण सेतु/जून-जुलाई २००७/अंक-१२०