गुरु की सेवा करो तो सच्चे हृदय से । गुरु से प्रेम करो तो सरल हृदय से…. निःस्वार्थ होकर…. निरहंकार होकर…. प्रेम करो तो गुरु के हृदय से भी प्रेम के आंदोलन बरसेंगे और तुम्हारे अंदर छुपा हुआ ईश्वरीय प्रेम का दरिया उमड़ पड़ेगा… तुम निहाल हो जाओगे !!!!!
                                                                                                            -पूज्य संत श्री आशारामजी बापू

 देवशर्मा नामक ब्राह्मण ने गुरुकुल में पढ़-लिखकर घर लौटते समय गुरुदेव के चरणों में प्रणाम करके दक्षिणा रखी । 
 गुरु ने कहा :- ‘‘ बेटा ! तूने गुरु-आश्रम में बहुत सेवा की है और तू गरीब ब्राह्मण है, तेरी दक्षिणा मुझे नहीं चाहिए । “

 देवशर्मा :- ‘‘ गुरुदेव ! कुछ-न-कुछ तो देना दीजिये । मेरा कर्तव्य निभाने के लिए ही सही, कुछ तो आपके
चरणों में रखने दीजिये । ’’

शिष्य की श्रद्धा को देखकर गुरुदेव ने दक्षिणा स्वीकार कर ली और कुछ प्रसाद देना चाहा । दूसरा तो उनके पास कुछ था नहीं अतः प्रसन्न होकर अपनी छाती का एक बाल तोड़कर दे दिया और बोले : ‘‘ ले जा बेटा ! खाली हाथ क्यों जायेगा ??? ’’ 

 गुरु जब प्रसाद देते हैं तो उसमें उनका संकल्प होता है । देवशर्मा समझदार था । उसने बड़े ही आदर से गुरुदेव का प्रसाद स्वीकार किया एवं घर जाकर एक चाँदी की डिब्बी में रखकर रोज उसकी पूजा-आराधना करने लगा । देवशर्मा पढ़कर शास्त्री बना था एवं कर्मकांडी था । अतः उसने कर्मकांड द्वारा अपनी आजीविका शुरू की । जिनका मुहूर्त निकालता, शादी कराता उन्हें लाभ-ही-लाभ होता । 

धीरे-धीरे गाँव के सब ब्राह्मणों का धंधा मंदा होने लगा और देवशर्मा के ग्राहक बढ़ते गये । ऐसा करते-करते देवशर्मा धन-वैभव से सम्पन्न हो गया । 

एक दिन एक कर्मकांडी विद्वान युवक ने कहा : ‘‘देवशर्मा ! तुम जितना पढ़े हो उससे तो मैं ज्यादा पढ़ा हुआ हूँ, दूसरे कई ब्राह्मण भी ज्यादा पढ़े हुए हैं….. फिर भी हम सब केवल मक्खियाँ उड़ाते रहते हैं और तुम मालामाल होते जा रहे हो ! तुम्हारे पास समय नहीं होता तो भी लोग तुम्हारा इंतजार करते हैं एवं तुम्हारे कथनानुसार ही अपना समय निर्धारित करते हैं । आखिर इसका रहस्य क्या है ? ’’ 

 देवशर्मा ने बड़ी सरलता से कह दिया :- ‘‘ जब मैं गुरुकुल से पढ़ाई पूरी करके आ रहा था, उस समय मेरे गुरुदेव ने प्रसन्न होकर अपनी छाती का एक बाल मुझे प्रसाद रूप में दिया था । वह बाल, मैं समझता हूँ मेरे गुरुदेव की कृपा ही है । मैंने चाँदी की डिब्बी में उस बाल को रखा है। रोज प्राणायाम, जप, ध्यान आदि के बाद उस गुरुप्रसाद का दर्शन करके फिर मैं अपने कार्य का आरम्भ करता हूँ । ’’

पूछनेवाला वह युवक भी पहुँचा उन गुरु के पास और बोला : ‘‘ गुरुजी ! गुरुजी !! हमारा धंधा बहुत मंदा चलता है । आपकी छाती का एक बाल दे दो न ! ’’ 

 गुरु ने कहा :- ‘‘बेटा ! वह केवल बाल का चमत्कार नहीं है । उस देवशर्मा का आचरण ऐसा बढ़िया था कि मैंने प्रसन्न होकर बाल दे दिया तो उसका काम बन गया । उसने सेवा से मेरा हृदय जीत लिया था । ’’

‘‘ मैं भी सेवा करने को तैयार हूँ । बस, आप अपनी छाती का बाल दे दीजिये । ’’

गुरुजी ने कहा :- ‘‘ नहीं देता । ’’ 

परंतु वह न माना ।

बोला :- ‘‘ मैं भी आपकी सेवा करूँगा । ’’

 उस युवक ने एकाध दिन और गुजारा कि शायद गुरुजी राजी हो जायें किंतु गुरु भला कब दिखावटी सेवा से राजी होते हैं ?????

किंतु उस ब्राह्मण को इस बात का पता न था । उसे तो केवल इतना ही मालूम था कि छाती के बाल के चमत्कार से देवशर्मा का धंधा चमक रहा है । 
उसने पुनः गुरु से बाल माँगा । गुरु ने इनकार करते हुए कह दिया :- ‘‘ जा तू यहाँ से ! ” 
अब उस ब्राह्मण को हुआ कि ‘ गुरु कोई बाल-वाल देनेवाले नहीं हैं । किंतु मैं कुछ भी करके उनका बाल जरूर ले जाऊँगा । ‘

दोपहर का समय था…. गुरुजी भोजन कर रहे थे । उस समय आसपास कोई चेला नहीं था । अतः उस ब्राह्मण ने मौका देखकर जोर से झपट्टा मारा और गुरुजी की जटा में से बाल ले भागा ।

 गुरु ने कहा :- ‘‘ बेटा तुझे बाल से बहुत प्रेम है न ! तो जा, भगवान की दया से तुझे बाल-ही-बाल मिलेंगे । “

अब वह युवक स्वप्न में भी बाल-ही-बाल देखने लगा । भोजन में भी बाल आ जाए जो अशुद्ध माना जाता है । देवशर्मा को गुरु ने प्रसन्न होकर एक बाल दिया तो उसका धंधा चमक उठा जबकि यह ब्राह्मण बाल छीनकर लाया तो हर जगह उसे बाल-ही-बाल मिलने लगे ।

 सीख :- महत्त्व वस्तु का नहीं वरन् गुरु की प्रसन्नता का है । गुरु संकल्प करके जो प्रसाद देते हैं, वह सामान्य दिखती वस्तु भी बहुत बड़ा काम कर जाती है…. फिर वह प्रसाद चाहे कोई वस्तु हो…. चाहे कोई उपदेशामृत हो । अतः सच्चे गुरुओं के प्रसाद का सदैव आदर करो ।