‘श्री योग वशिष्ठ महारामायण’ में आता है कि : “हे रामजी ! यह चित्त जो संसार के भोग की ओर जाता है, उस भोग
रूपी खाई में चित्त को गिरने मत दो । भोग को बिसर जाने दो, त्याग दो । वह त्याग तुम्हारा परम् मित्र होगा और
त्याग भी ऐसा करो कि फिर उसका ग्रहण न हो ।
– ऋषि प्रसाद / मई २००१ / २३