2021 Dakshinayana Kya Khana Chaiye, Kya Nahi Khana Chaiye [Dakshinayana 2021 Start Date]:
ग्रीष्म ऋतु के अंत में उत्तरायण समाप्त हो जाता है और सूर्य दक्षिण दिशा की ओर गमन करने लगता है । इसे ‘दक्षिणायन’ कहते हैं ।
दक्षिणायन में वर्षा, शरद व हेमंत इन तीन ऋतुओं का समावेश होता है । इन ऋतुओं में सूर्य जब दक्षिण दिशा की ओर गमन करता है, तब मेघ, वायु और वर्षा के कारण उसकी ऊष्मा कम मात्रा में धरती तक पहुँचती है । वर्षा के कारण पृथ्वी का ताप भी शांत हो जाता है ।
इस कालखंड में चन्द्रमा पूर्ण बलवान रहता है तथा समस्त भूमंडल पर अपनी किरणें फैलाकर विश्व को निरंतर तृप्त करता रहता है । इस कारण पृथ्वी, जल तथा वनस्पतियों में मधुर, अम्ल, लवण इन स्निग्ध रसों की वृद्धि होने लगती है ।
उत्तरायण में रुक्ष वायु तथा सूर्य की प्रखर किरणों से दुर्बल बने शरीर को दक्षिणायन में धीरे-धीरे बल प्राप्त होने लगता है ।
विसृजति ददाति पृथिव्याः
सौम्यांशं प्राणिनां बलं चेति विसर्गः
‘दक्षिणायन को सौम्यांश (शीतलता, स्निगाता) तथा प्राणियों को बल प्रदान करता है, अतः इसे विसर्गकाल कहते हैं ।
(चरक संहिता, सूत्रस्थानम् : अध्याय ६)
वर्षा ऋतु में विसर्गकाल प्रारम्भ होने से पृथ्वी, जल आदि में स्नेह की वृद्धि अल्प मात्रा में होती है, अतः शारीरिक बल में भी अल्प वृद्धि होती है कि बाद आने वाली शरद तथा ऋतुओं में शरीर तथा जठराग्नि के बल में उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है ।
वर्षा ऋतु में शारीरिक स्थिति :
इस ऋतु में भूमि से वाष्प निकलने तथा आकाश से जल बरसने के कारण हवा में आर्द्रता (नमी) रहती है । यह आर्द्रता श्वासोच्छवास के द्वारा शरीर में प्रवेश कर जठराग्नि को मंद कर देती है ।
ग्रीष्म ऋतु में रुक्षता के कारण तथा अधिक शीत जलीय पदार्थों के सेवन से शरीर में वायु का संचय हो जाता है, जो कि वर्षा ऋतु की शीत जलवायु के कारण प्रकुपित हो जाती है ।
मंद जठराग्नि, प्रकुपित वायु तथा शारीरिक बल की अल्पता इस ऋतु में अनेक व्याधियों को आमंत्रित करती है । संधिवात, दमा, खाँसी जैसे वातजन्य रोग जोर पकड़ने लगते हैं । दूषित जल तथा हवा से हैजा, मलेरिया जैसी संक्रामक व्याधियाँ फैलने लगती हैं ।
इनसे रक्षा करने तथा जठराग्नि को प्रज्वलित रखने हेतु कुछ उपाय यहाँ दिये जा रहे हैं ।
सुरक्षा-उपाय :
जठराग्नि की रक्षा के लिए सबसे प्रथम उपचार है उपवास । अपनी संस्कृति में श्रावण तथा भाद्रपद महीनों में अधिकाधिक व्रत तथा उपवासों का जो विधान है उसके पीछे धार्मिक लाभ के साथ-साथ स्वास्थ्य-रक्षण प्रधान हेतु है ।
मंद गति से कार्य करनेवाले पाचन-संस्थान पर अन्न का अधिक भार डालकर रोगों को आमंत्रित करने की अपेक्षा हल्का, सुपाच्य भोजन लेना व उपवास रखना बुद्धिमानी है ।
प्रत्येक व्यक्ति को अपनी क्षमता के अनुसार सप्ताह में कम-से-कम एक-दो दिन उपवास अवश्य रखना चाहिए । श्रावण महीने में किसी एक अनाज (जैसे केवल मूंग) पर रहना भी उपवास माना जाता है । इन दिनों में अनाज को पहले सेंककर बाद में उपयोग करना भी लाभदायी है । इससे वह पचने में हल्का हो जाता है ।
वायु और वर्षा से युक्त विशेषशील वाले दिनों में भोजन में खट्टे, नमकीन व स्निग्ध पदार्थों की प्रधानता होनी चाहिए । बाहर की नमी युक्त हवा का प्रतिकार करने के लिए शरीर तीखे-नमकीन पदार्थों की माँग करता है । इसकी पूर्ति पकौड़े-भुजिया आदि का अल्प मात्रा में सेवन कर की जा सकती है ।
इन दिनों में लहसुन, अदरक, सोंठ, काली मिर्च, हरी मिर्च, अजवायन, हींग आदि तीखे पदार्थों का सेवन करना चाहिए । इससे शरीर की नमी कम करने में तथा जठराग्नि प्रज्वलित रखने में मदद मिलती है । अदरक, लहसुन व नींबू का सेवन वर्षा ऋतु में विशेष लाभदायी है ।
मंदाग्नि से सुरक्षा हेतु जीरा (सेंका हुआ), सोंठ, काला नमक और काली मिर्च – चारों समान मात्रा में लें और बारीक कूटकर उनका मिश्रण बना लें । ३ ग्राम चूर्ण ताजे पानी के साथ लेने से इन दिनों में होने वाले मंदाग्नि, अजीर्ण, अफरा आदि पेट के रोगों में लाभ होता है ।
इन दिनों में पानी उबालकर पीयें । पानी में सोंठ, नागरमोथ, जीरा अथवा धनिया डालकर उबालने से वह विशेष हितकर होता है ।
इस ऋतु में जठराग्नि की रक्षा चाहने वालों को पुराने जौ, गेहूँ और चावल का सेवन करना चाहिए । सब्जियों में सहजन (सरगवा), सूरन, परवल, लौकी, हफ्ते में एक दिन करेला, विषखपरा (साटी); दालों में कुल्थी मँग, तेलों में तिल का तेल सेवनीय हैं । जबकि सब्जियों में आलू, गोभी, ग्वारफली, भिंडी, दालों में अरहर (तुअर), उड़द, राजमा तथा अंकुरित अनाज त्याज्य हैं ।
श्रावण मास में दूध व हरी सब्जियाँ तथा भाद्रपद में छाछ व लौकी का सेवन नहीं करना चाहिए । वर्षा ऋतु में प्रकुपित वायु के शमनार्थ अनुभवी वैद्यों द्वारा बस्ति उपक्रम करवाने से सम्पूर्ण वर्षभर वातजन्य व्याधियों से रक्षा होती है ।
इस ऋतु में गोमूत्र के पान, मुलतानी मिट्टी से स्नान, घर तथा आस-पास के परिसर में धूप करने, गोबर अथवा गोमूत्र से भूमि को स्वच्छ व पवित्र रखने तथा परंपरागत व्रत-उपवास रखने से व यज्ञ-याग, जप आदि करने से स्वास्थ्य-लाभ के साथ-साथ महान धर्म-लाभ भी होता है ।
१. इसे संस्कृत में पुनर्नवा’, गुजराती में ‘साटोड़ी’, मराठी में घेटुली (घेटुळी), सिंधी में ‘लुणक’ तथा पंजाबी में ‘साटा’ बोलते हैं । गुर्दे (किडनी) को नवीनता बख्शने वाली यह सब्जी गुर्दे की कमजोरी को दूर करने के लिए वरदान स्वरूप है ।
२ कुल्थी के सेवन से अन्य दालों के लाभ तो मिलेंगे ही, साथ ही इसके पथरी नाशक गुण का भी लाभ मिलेगा ।
– ऋषि प्रसाद, जुलाई 2005