सर्दी के मौसम में गाँधीजी सिर पर ऊन का एक टुकड़ा बाँधते थे । जब वह जर्जरीभूत हो गया, तब उनकी सेविका मनु ने उन्हें एक नया टुकड़ा दे दिया ।
गाँधीजी बोले : “न तो तुम कमाती हो, न मैं कमाता हूँ। तुम्हारे पिता की तरह मेरे पिता भी नहीं जो कमाकर मुझे भेजें । मैं तो गरीब आदमी हूँ । इस प्रकार पुराने कपड़े फेंक देना मेरे लिए संभव नहीं है। लाओ, वह पुराना कपड़ा मुझे दे दो। मैं उसमें पैवंद ( थिगली ) लगा दूँगा ।”
मनु जानती थी कि गाँधीजी जो बोलते हैं वह करके ही रहते हैं । वह कपड़ा ले आयी और गाँधीजी सुई-धागा लेकर उसमें पैवंद लगाने बैठ गये । पैवंद लगाते-लगाते जब रात के ग्यारह बजे तो मनु बोली : “लाइये,अब मैं लगा दूँ ।”
गाँधीजी : “तू देख तो सही ! मेरी परीक्षा तो कर कि मुझे यह काम करना आता है या नहीं ।”
गाँधीजी काम पूरा करके ही उठे । मनु ने देखा कि पैवंद ऐसे सुन्दर ढंग से लगाये हुए थे मानो किसी दर्जी का काम हो। टाँके भी एकदम सीधे लगे हुए थे ।
गाँधीजी में करकसर का गुण था । अपने पूज्य लीलाशाहजी बापू हों या अपने पूज्य बापूजी, प्रत्येक महान व्यक्ति में यह गुण होता है ।
➢ लोक कल्याण सेतु/सित.-अक्टू. 2006