एक बार रक्षाबंधन के पर्व पर परम पूज्य सदगुरुदेव (साईं लीलाशाहजी महाराज | Sai Lilashah ji Maharaj) अमदावाद में पधारे हुए थे।
जूनागढ़ से एक प्रोफेसर किसी काम से अमदावाद आये थे। रक्षाबन्धन का अवसर देखकर वे रुक गये एवं पूज्यश्री को उन्होंने राखी बाँधी।
उस समय मेरे मन में ऐसा भाव उठा: ‘साँई को अब राखी बँधवाने की क्या जरूरत है ?’
परन्तु अब पता चलता है कि कोई जरूरत न होने पर भी सामने वाले के प्रेम को स्वीकारना पड़ता है। पूर्ण निष्काम होने पर भी भाविकों के भावपूर्ण व्यवहार को स्वीकारने से भाविकों के जीवन में कोई अलौकिक घटना बन जाती है। यही संतों की सहजता और सरलता है। लौकिकता से परे होने के बावजूद लौकिक व्यवहार में आने से उन्हें कोई हानि नहीं होती।
सच्चा प्रेम तो संत और केवल संत ही कर सकते हैं । गृहस्थियों को लौकिक उत्सवों के निमित्त से प्रवृत्तिमय जीवन में से हटने का मौका मिलता है और संत के साथ पहचान हो, संबंध हो, तो वह संबंध एक दिन परमात्मा के साथ जरूर मिलवा देता है। नहीं तो, हिमालय के एकान्त में, ईश्वरीय मस्ती में रमण करनेवाले संत को भला क्या राखी और क्या तिलक क्या मेवा-मिठाई लेना और पुनः सभी को प्रसादरूप में बाँटना ?
व्यर्थ का बोझ उठाना…?
ऐसा होने पर भी वे लोग व्यवहार में आते हैं, लोगों का प्रेम और भेंट स्वीकार करते हैं वह इसी एक शुभकामना से कि लोग एक दिन जरूर उनके प्रभुमार्ग पर चलने की बात को स्वीकार लें । यह उनकी अनुकम्पा है, सरलता है।
~जीवन सौरभ साहित्य से