- बंगला रामायण में एक कथा आती है कि समुद्र-पार जाने हेतु भगवान श्रीरामजी की वानर-सेना सेतु बाँधने के कार्य में लगी थी । एक गिलहरी ने सोचा कि ‘सब रामकाज में लगे हैं तो मैं भी लग जाऊँ ।’ वह समुद्र में गोते लगाती और आकर बालू में लोटती । जब उसके शरीर में खूब बालू लग जाती, तब पुल पर जाकर उसे झाड़ देती और चली आती ।
- उसके आने-जाने से बंदरों को तकलीफ होती थी । उन्होंने हनुमानजी से शिकायत की । बंदरों की शिकायत सुनकर हनुमानजी ने गिलहरी की पूँछ पर अपने पैर का अँगूठा जरा-सा दबाया और कहा कि ‘‘तुम सेवा नहीं करोगी ! तुम्हारी जरा-सी सेवा से बंदरों को विघ्न होता है ।”
- गिलहरी शिकायत करने श्री रामजी के पास भागी । वह बोली … ‘‘प्रभु ! मैं सेतु के निर्माण में मेरी ओर से जितनी हो सके उतनी सेवा कर रही थी और प्रत्येक जीव अपनी योग्यता के अनुसार ही तो प्रभु की सेवा कर सकता है ।”
- श्रीरामजी बोले … ‘‘हाँ-हाँ, तुम सेवा करो । यह तन सेवा करके ईश्वर-प्राप्ति की ओर आगे बढने के लिए ही है ।”
- ‘‘किन्तु हनुमानजी मुझे सेवा नहीं करने देते और मेरी पूँछ को उन्होंने पैर के अँगूठे से दबाया । पूँछ दबायी जाने पर प्राणियों को कितनी पीडा होती है, प्रभु !”
- श्रीरामजी ने कहा … ‘‘अब तू ही बता कि हनुमान को क्या दंड दूँ ?”
- ‘‘प्रभु ! आप हनुमानजी की पूँछ को अपने चरण से ऐसा दबाइये कि वे भी चें-चें करके कूदें ।”
- ‘‘ठीक है, ऐसा ही किया जायेगा ।
- हनुमानजी को लाया गया । श्रीरामजी ने पूछा … ‘‘इसको सेवा करने से तुमने रोका था ?
- ‘जी, प्रभु ! ‘‘इसकी पूँछ तुमने दबायी थी ?
- ‘‘हाँ, प्रभु !
- ‘‘बैठ जाओ, तुम्हें दंड दिया जायेगा ।
- हनुमानजी ने कोई सफाई नहीं दी और बैठ गये । श्रीरामजी ने पूरा बल लगाकर अपने दायें चरण से हनुमानजी की पूँछ दबायी । पहले क्षण तो पीडा हुई किन्तु ‘चरण श्रीरामजी के हैं- ऐसा सोचकर हनुमानजी गद्गद हो गये और उनकी भावसमाधि लग गयी ।
- जब वे समाधि से उठे तो गिलहरी के पास गये और बोले … ‘‘मैं तेरे आगे हाथ जोडता हूँ, मैं फिर से तेरी पूँछ दबाता हूँ, तू मुझे फिर से प्रभुचरणों के स्पर्श का जरा स्वाद दिला दे ।
- ज्ञान : कैसी प्रभुप्रीति है नम्रता की मूर्ति, सत्यनिष्ठ, जितेन्द्रिय, मातृभक्त और भगवान श्रीरामजी के स्नेहपात्र हनुमानजी की !
- संकल्प : ‘हम भी हनुमान जैसी सेवानिष्ठा और प्रभुप्रीति बढायेंगे ।