मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।
कहैं कबीर गुरु पाइये, मन ही के परतीत।। -पूज्य संत श्री आशारामजी बापूजी
यह घटना राजस्थान की प्रसिद्ध संत भूरीबाई (Bhuri Bai) के साधनाकाल की है। एक बार उनको ६ दिन तक तेज बुखार रहा। उस समय उनकी उम्र २३ वर्ष की थी और विधवा-अवस्था थी।
वे एक ताँगेवाले चौधरी के यहाँ उसके घोड़ों के लिए अनाज दलने का कार्य करती थीं। वहाँ उन्हें एक मन अनाज दलने पर चार आने मिलते थे। बुखार में उन्होंने काम नहीं किया। सातवें दिन जब बुखार टूटा
तो उन्हें भोजन करने की इच्छा हुई ,परंतु घर में खाने-पीने को कुछ नहीं था।
एक डिब्बे में उन्हें कुछ पैसे मिले, उनसे कद्दू खरीदकर उबालकर खाया। बाद में आधा मन अनाज दला, जिससे 2 आने मिले। उनसे जौ का आटा लाकर दो रोटी सेंकी। बुखार के कारण एक तो मुँह का स्वाद जाता रहा,
ऊपर से जौ की कोरी रोटी ! गले से नीचे नहीं उतरी। भूरी बाई के मन में आया कि मिर्च-मसाला हो तो रोटी खायी जाये परंतु मिर्च-मसाला तो घर में था ही नहीं।
इस तरह तीन दिन तक मन में मिर्च-मसाले का चिंतन चलता रहा। “आज मिर्च-मसाला चाहनेवाले मन को मारना ही होगा।”- ऐसा निश्चय कर चौथे दिन भूरी बाई जौ की रोटी खाने बैठीं, पर खाते ही उबकान आने लगी और पुनःमिर्च की इच्छा होने लगी। उस समय एक महिला उनके पास बैठी थी।
भूरीबाई (Bhuri Bai) ने उससे कहा:- “कहीं से थोड़ा गोबर ले आ।” वह महिला गोबर ले आयी।”
भूरीबाई (Bhuri Bai) ने रोटी पर गोबर रखकर उससे रोटी खानी शुरू कर दी। यह देख वह महिला रोने लगी। वह अपने घर से सब्जी लाकर देने की प्रार्थना करने लगी।
भूरीबाई (Bhuri Bai) ने कहा :”कोरी सूखी रोटी गले नहीं उतर रही थी, गोबर से गले उतर जायेगी। मिर्च-मसाले के इच्छुक मन को आज यही खुराक खिलानी है। आप चिंतित न हों।”
मन पर विजय पाने में भूरी बाई को यह प्रयोग बड़ा सहायक सिद्ध हुआ। मन में स्वाद की वासना मिटते ही आंतरिक स्वाद में मन को विश्रांति मिली, विश्रांति से सामर्थ्य का विकास हुआ। फिर तो उनके वचन से, दर्शन से बहुत लोग लाभान्वित हुए। क्या साधु, क्या सन्यासी, मंत्री और राजे-महाराजे भी भूरीबाई के दर्शन-सत्संग का लाभ ले उन्नत होने लगे।
-जिसने अपने मन को वश में कर लिया, समझिये उसने बहुत बड़ा कार्य साध लिया। यह साधारण बात नहीं है। वश में किया हुआ मन हमारा मित्र है तो अवश मन घोर शत्रु। वश में किये हुए मन से व्यक्ति लौकिक व आध्यात्मिक दोनों मार्गों में सफल होता है, वहीं दूसरी ओर चंचल, उच्छृंखल, अवश मन व्यक्ति को महान दुःख-कष्टों में धकेल देता है। अतः सत्संग से, साधन-भजन से, प्रयत्न व अभ्यास से तथा भगवद् समर्पण आदि से मन को वश कर लेना चाहिए।
~लोक कल्याण सेतु/दिस.-जन./२००६