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‘गीता’ में वर्णित चार विद्याएँ

  • श्रीमद्भगवद्गीता में चार विद्याओं का वर्णन आता है :
  • (1) अभय विद्या : मौत का भय निवृत्त करनेवाली विद्या का नाम है ‘अभय विद्या’ । जैसे घड़े का आकाश और महाकाश एक है, ऐसे ही आत्मा-परमात्मा एक है । शरीर की मौत होने पर भी तुम मरनेवाले नहीं हो ।

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदय्नत्यापो न शोषयति मारुतः ।।
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ।।

  • ‘इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, आग जला नहीं सकती, जल गला नहीं सकता और वायु सुखा नहीं सकती क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य है, अदाह्य, अक्लेद्य और निःसंदेह अशोष्य है तथा नित्य, सर्वव्यापी, अचल, स्थिर रहनेवाला और सनातन है ।’ (श्रीमद्भगवद्गीता : 2.23-24)
  • इस प्रकार गीता में अभय विद्या की बात आती है । इसके अनुसार मरने के बाद शरीर पंचतत्त्वों में मिल जाता है किंतु इस पंचभौतिक शरीर को जो चला रहा है वह चैतन्य आत्मा सदा रहता है । घड़ा टूट सकता है लेकिन घड़े के अंदर के आकाश को कौन तोड़ सकता है ?
  • हम अमर आत्मा हैं । हम जन्म के पहले थे और मरने के बाद भी रहेंगे । दुनिया के सारे वैज्ञानिक मिलकर भी राई के एक दाने को नष्ट नहीं कर सकते । उसे कूट-पीसकर बारीक-से-बारीक, माइक्रो (10 लाखवें भाग के बराबर) कर देंगे । उसके कण नजर नहीं आयेंगे किंतु उन कणों के रूप में उसका अस्तित्व वातावरण में रहेगा । जब राई का दाना अमिट है तो इतना बड़ा मनुष्य-शरीर कैसे मिट सकता है ?
  • अभय विद्या बेपरवाह बना देती है । ज्ञानी कंगाल हो तो उसको अपने में हीनता नहीं महसूस होगी और सारी सृष्टि का राजा बनकर बैठा हो तो उसको गर्व नहीं होगा । दुनिया की सब चीजें तुम्हें मिल जायें तो तुम बड़े नहीं हो जाते और तुम्हारी सब चीजें छिन जायें तो तुम छोटे नहीं हो जाते । बड़े या छोटेपन का भाव होता है, वृत्ति होती है, तुम वही-के-वही होते हो ।
  • छोटे आदमी की पहचान यह है कि वह जरा-जरा-सी बात से प्रभावित हो जाता है । पहले के जमाने में विवाह से पूर्व युवक और कन्या की परीक्षा होती थी कि वे योग्य हैं कि नहीं ? जैसे – कन्या पक्षवालों को जिस युवक के साथ अपनी कन्या का विवाह करना होता था, उसे भोजन के लिए बुलाते और विभिन्न खाद्य पदार्थ परोसकर देखते कि किसी खाद्य पदार्थ पर वह ललकता है या नहीं । फिर उसे वस्तुएँ देकर जाँच करते कि उसकी प्रिय वस्तु क्या है ? किन प्रकार की वस्तुओं में उसकी अधिक रुचि है ? उसे अच्छे न लगें ऐसे शब्द कहते और देखते कि कितना खिन्न होता है, कितना दुःखी होता है । इस तरह युवक की योग्यता को परखने के लिए कन्या पक्ष के लोग विभिन्न तरीके अपनाते । अगर वह लालायित, खिन्न या उद्विग्न नहीं होता तो परीक्षा में सफल माना जाता, योग्य समझा जाता था ।
  • कोई आपकी निंदा करता है तो दुःखी होने की क्या जरूरत है ? विचार करो कि ‘उसने किसकी निंदा की ?’ यदि आपको लगता है कि आपके शरीर की निंदा की तो मल-मूत्र आदि से भरा शरीर तो निंदनीय ही है । यदि आपको लगता है कि उसने आपके आत्मा की निंदा की तो उसका और आपका आत्मा एक ही है ।
  • किसीने आपके लिए अखबार में कुछ गलत छपवा दिया तो ‘अरे ! मेरे बारे में अखबार में यह छप गया…’ ऐसा सोचकर डरने की जरूरत नहीं है । देशभर में हजारों अखबार निकलते हैं, उनमें से किसी एक अखबार में कुछ छप गया तो क्या बड़ी बात है ? उसे पढ़ेंगे भी 1000-1500 लोग ही और जिन्होंने पढ़ा वे सब थोड़े ही जानते हैं तुमको ? जान भी लिया तो तुम्हारी बात याद थोड़े ही रखेंगे ? खायेंगे अपना और याद तुम्हारी बात रखेंगे क्या ? फिर ऐसा-वैसा किसीने लिख दिया तो क्यों डरें ? अपने से बदी के (बुरे) काम नहीं होने चाहिए इसका खयाल रखो, फिर कोई कुछ भी लिखकर बदनामी करे तो क्या फर्क पड़ता है ? डरने की क्या जरूरत है ?

मैं छुई-मुई का पौधा नहीं, जो छूने से मुरझाता है ।
मैं वो माई का लाल नहीं, जो हौए से डर जाता है ।।

  • अखंडानंदजी सरस्वती मुंबई में थे । ब्लैकमेलिंग करनेवाले कुछ पत्रकार उनके पास आये और बोले :
  • ‘‘बाबाजी ! इतने रुपये दे दो ।’’
  • ‘‘किस बात के ?’’
  • ‘‘हम पत्रकार हैं । अगर हम राजी हों तो पीतल को भी सोने की भाँति चमका देते हैं । आपका कार्यक्रम कितना भी अच्छा हुआ हो लेकिन ‘श्रोताओं की संख्या बहुत कम थी, लोग मजबूरन बैठे थे ।’ इस तरह लिखकर हम चाहें तो अपनी कलम से आपका किया-कराया सब चौपट कर सकते हैं और लोग भले कम हों और हम लिख दें कि ‘श्रोताओं की भीड़ के आगे मैदान छोटा पड़ गया… लोग बड़े एकाग्रचित्त होकर सत्संग सुन रहे थे…’ तो आपकी प्रसिद्धि बढ़ सकती है ।’’
  • ‘‘तुम लोग कोई अच्छा काम करने के लिए नेक इरादा रखकर आते तो हम कुछ दे देते किंतु तुम यह धमकी देते हो तो तुम्हारी इस गीदड़-भभकी से यदि हमारा सुख और हमारे श्रोता चले जाते हों तो ऐसा सुख व श्रोता मुझे नहीं चाहिए ।’’
  • लोग जरा-सी निंदा से घबरा जाते हैं, दुःखी व भयभीत हो जाते हैं क्योंकि गीता की अभय विद्या का उन्हें ज्ञान नहीं है । अभय विद्या आदमी को स्वस्थ बना देती है, बेपरवाह बना देती है ।
  • दुःख के चार मुख्य कारण हैं : मृत्यु का भय, अपमान का भय, गरीबी का भय और कुछ खो जाने का भय । लेकिन पता चले कि मेरा आत्मा जन्मा भी नहीं, मरेगा भी नहीं तो भय किसका ? इसको बोलते हैं अभय विद्या ।
  • (2) साम्य विद्या : सदैव समत्व में रहने की कला सिखानेवाली विद्या का नाम है ‘साम्य विद्या’ । सुख आने से पहले भी आप थे, सुख के चले जाने पर भी आप रहोगे । दुःख आया तभी भी आप थे, दुःख चला जायेगा फिर भी आप वही-के-वही रहोगे ।
  • कोई भी अवस्था आये, वह चली जायेगी । बाल्यावस्था गयी, किशोरावस्था गयी, जवानी आयी । अब जवानी भी जायेगी और बुढ़ापा आयेगा… पहले की अवस्थाएँ थीं तब भी आप थे और वे चली गयीं तब भी आप वही-के-वही हो । इन अवस्थाओं को देखनेवाला परमात्मा साक्षीस्वरूप है । अपने उस साक्षीस्वरूप को जानकर मुक्त होने की कला बताती है गीता की साम्य विद्या ।
  • ऐसा नहीं है कि ब्रह्मज्ञान पाने के बाद दुःख, रोग और मुसीबतें नहीं आयेंगी, आपको भूख-प्यास नहीं लगेगी, नहीं । ब्रह्मज्ञान का फल यह है कि निंदा हो तब भी आप सम रह सकेंगे, स्तुति हो तब भी सम रह सकेंगे । तंदुरुस्त हों तब भी सम रह सकेंगे और बीमार हों तब भी सम रह सकेंगे । सारी दुनिया के लोग तुम्हारे विरोध में उलटे होकर टँग जायें तब भी तुम्हारे चित्त में समता बनी रहेगी ।

समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः ।
शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः ।।
तुल्यनिंदास्तुतिर्मौनी संतुष्टो येन केनचित् ।
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः ।।

  • ‘जो शत्रु-मित्र में और मान-अपमान में सम है तथा सर्दी, गरमी और सुख-दुःखादि द्वन्द्वों में सम है और आसक्ति से रहित है । जो निंदा-स्तुति को समान समझनेवाला, मननशील और जिस किसी प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा ही संतुष्ट है और रहने के स्थान में ममता और आसक्ति से रहित है- वह स्थिरबुद्धि भक्तिमान पुरुष मुझको प्रिय है ।’ (श्रीमद्भगवद्गीता : 12.18-19)
  • आप बड़ी ऊँचाई के शिखर पर पहुँच जाओगे । ज्ञानी यक्षों, गंधर्वों, किन्नरों, देवताओं का भी सम्माननीय हो जाता है । आप समता के सिंहासन पर पहुँचो तो त्रिलोकी का सुख भी आपके उस सुख के आगे नन्हा हो जायेगा ।
  • (3) ईश्वरीय विद्या : ईश्वरीय विद्या का आश्रय लेने से अपने हृदय में ईश्वरीय रस प्रकट होता है । ईश्वर हमारे दोषों को नहीं देखते, हम केवल उनको चाहें तो वे हमें स्वीकार कर लेते हैं । यह ‘ईश्वरीय विद्या’ है । ईश्वर ऐसे नहीं हैं कि अच्छे-अच्छे को अपनी शरण में लें और बुरे को न लें । यदि ऐसा होता तो ईश्वर का ईश्वरत्व सिद्ध नहीं होता ।
  • विभीषण भगवान श्रीराम की शरण में आये तो सुग्रीव ने कहा कि ‘‘इसको शरण में न लें क्योंकि यह आपके शत्रु रावण का भाई है, दैत्य है, न जाने किस इरादे से आया है ? आपका बनकर फिर रहस्य जानकर हानि पहुँचाये तो ? इसे तो बाँधकर रखना चाहिए ।’’

जानि न जाइ निसाचर माया । कामरूप केहि कारन आया ।।
भेद हमार लेन सठ आवा । राखिअ बाँधि मोहि अस भावा ।।
(श्री रामचरित. सुं.कां. : 42.3-4)

  • भगवान श्रीराम ने कहा : ‘‘यह शत्रु का भाई है इसलिए हम इसको शरण न दें तो हमारे ईश्वरत्व का खंडन हो जाता है । यह दैत्य है तो क्या हमारा ईश्वरत्व तोड़ देगा ? यह हमारी शरण में आया है, बात यहीं पूरी हो जाती है ।’’

सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि ।
ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि ।।

(श्री रामचरित. सुं.कां. : 43)

कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू ।
आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू ।।

सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं ।
जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं ।।

(श्री रामचरित. सुं.कां. : 43.1)

  • ईश्वर केवल अच्छे लोगों को ही शरण दें तो इसमें क्या बड़ी बात है ? लेकिन ईश्वर उनके शरणागत हुए बुरे-से-बुरे व्यक्ति को भी स्वीकार करते हैं और फिर भी उनका ईश्वरत्व बना रहता है तथा सामनेवाले का दोष चला जाता है तभी वे ‘ईश्वर’ कहलाते हैं । कैसे भी लोग आ जायें, वे लोगों के पीछे खींचे नहीं जाते अपितु लोग उनकी ओर खिंच जाते हैं ।
  • गीता कहती है :

अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं संतरिष्यसि ।।

  • ‘यदि तू अन्य सब पापियों से भी अधिक पाप करनेवाला है तो भी तू ज्ञानरूपी नौका द्वारा निःसंदेह सम्पूर्ण पाप-समुद्र से भलीभाँति तर जायेगा ।’ (4.36)
  • जो दुराचारी से भी दुराचारी हो, पापी से भी पापी हो, वह भी यदि भगवान की शरण में आता है तो तर जाता है । यही है गीता की ईश्वरीय विद्या ।
  • बच्चा साफ-सुथरा हो या मैला हो, माँ उसे गोद में ले लेती है । वह ऐसा न करे तो उसका ‘माँ’ कहलाना व्यर्थ हो जायेगा । ऐसे ही आप भले जैसे-तैसे हैं, ईश्वर के हैं । ईश्वर आपको कभी नहीं ठुकराते । भले आप उन्हें भूल जाओ किंतु वे आपको नहीं भूलते ।
  • ईश्वरीय विद्या सबसे बड़ी आश्रयदाता है । ‘मेरा कोई नहीं, मैं अनाथ हूँ…’ ऐसा सोचकर क्यों अपना जीवन खराब करना ? जगत का नाथ जीवित है फिर तुम अनाथ कैसे ? यह ईश्वरीय विद्या आपमें बड़ी-बड़ी बाधाओं को, दुःखों को सहन करने की शक्ति भर देती है तथा आपके जीवन में सुख, शांति और ज्ञान-प्रकाश का सवेरा लाती है ।
  • (4) ब्रह्मविद्या : जीव को जीव-ब्रह्म एकत्व का बोध करानेवाली विद्या है ‘ब्रह्मविद्या’ । ‘ब्रह्म-परमात्मा ही सबका आत्मा बनकर बैठे हैं । आत्मा और परमात्मा एक ही हैं । चाहे शरीर मर जाय किंतु मैं वह आत्मा हूँ जिसको मौत नहीं मार सकती ।’ – यह है गीता की ब्रह्मविद्या ।
  • मानव-जीवन के पाँच क्लेश हैं : अविद्या, अस्मिता (अहंकार), राग, द्वेष और अभिनिवेश (मृत्यु के भय से उत्पन्न क्लेश) । गीता की अभय विद्या भय से, अभिनिवेश से बचाती है । साम्य विद्या विषमता से, राग-द्वेष से बचाती है । ईश्वरीय विद्या अस्मिता से बचाती है और ब्रह्मविद्या अविद्या को मिटाकर हमें अपने ब्रह्मस्वरूप में जगा देती है ।
    – ऋषि प्रसाद, जनवरी 2005