Guru Shishya Ka Rishta [Guru Shishya Tradition Relationship Story in Hindi]
- “बाबा ! आप मेरे गुरुजी हैं । जन्म-जन्म से आप मेरे हैं । और यहाँ इसी गुफा में मैंने पूर्वजन्म में अनेक वर्षों तक निवास किया था ।‘; और लाहिड़ी अश्रुपूरित नेत्रों से अपने गुरु के चरणों में लोट गये ।
- योगी श्यामाचरण लाहिड़ी बंगाल के प्रसिद्ध संत हो गये । संत बनने से पहले के जीवन में वे दानापुर में सरकार के “सैनिक इंजीनियरिंग विभाग” में एकाउंटेंट के पद पर कार्य करते थे । एक दिन प्रातःकाल ऑफिस मैनेजर ने उन्हें बुलवाया और कहा : “लाहिड़ी ! हमारे प्रधान कार्यालय से अभी-अभी एक तार आया है । तुम्हारा स्थानांतरण रानीखेत (जि. अल्मोड़ा, उत्तराखंड) के लिए हो गया है ।”
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- लाहिड़ी रानीखेत चले गये । एक दिन वहाँ पर्वत पर भ्रमण करते समय किसीने दूर से उनका नाम पुकारा । लाहिड़ी द्रोणगिरी पर्वत पर गये तो उन्हें बाबाजी के दर्शन हुए । बाबाजी ने कहा : “लाहिड़ी ! तुम आ गये, यहीं गुफा में विश्राम करो ।” लाहिड़ी आश्चर्यचकित हो गये ।
- बाबाजी ने आगे कहा : “मैंने ही परोक्षरूप से तुम्हारा स्थानांतरण यहाँ कराया है ।”
- लाहिड़ी को कुछ समझ में नहीं आया और वे हतबुद्धि होकर मौन बने रहे ।
- लेकिन जब बाबाजी ने लाहिड़ी के कपाल पर स्नेह से मृदु आघात किया तो उन्हें पूर्वजन्म का स्मरण होने लगा, वे बोले : “बाबा ! आप मेरे गुरुजी हैं । जन्म-जन्म से आप मेरे हैं । और यहाँ इसी गुफा में मैंने पूर्वजन्म में अनेक वर्षों तक निवास किया था ।” और लाहिड़ी अश्रुपूरित नेत्रों से अपने गुरु के चरणों में लोट गये ।
- बाबाजी ने कहा : “मैंने तीन दशकों से भी अधिक समय तुम्हारे लौटने की प्रतीक्षा की है । तुम चले गये और मृत्यु के पार जीवन की कोलाहलमय तरंगों में खो गये । यद्यपि तुम मुझे नहीं देख सकते थे किंतु मेरी दृष्टि सदा तुम पर लगी हुई थी । देवदूत जिस सूक्ष्म ज्योति-सागर में घूमते रहते हैं, मैं वहाँ भी तुम्हें देख रहा था । जब तुमने माता के गर्भ में नियतकाल पूरा कर जन्म लिया, तब भी मेरी दृष्टि तुम्हारे ऊपर थी ।
- कई वर्षों से मैं इसी दिन की प्रतीक्षा में धैर्यपूर्वक तुम्हारे ऊपर दृष्टि रखता आया हूँ । अब तुम मेरे पास आ गये हो । यह तुम्हारा वही पुराना साधना-स्थान है ।”
- लाहिड़ी गद्गद हो गये और बोले : “गुरुदेव ! मेरे पास कहने के लिए कुछ नहीं है । आज मैं अपने शाश्वत सद्गुरु को पाकर आनंद से भर गया हूँ ।” रात्रि में बाबाजी ने योगबल से एक स्वर्ण-महल की रचना की और लाहिड़ी को उसमें बुलाया । लाहिड़ी को उस महल में ही बाबाजी ने योगदीक्षा दी और कहा : “पूर्व के जन्म में स्वर्ण-महल के सौंदर्य का आनंद लेने की तुम्हारी दृढ़ वासना थी ।”
- पिछला कर्मबंधन टूट जाय इसलिए बाबाजी ने लाहिड़ी को स्वर्ण-महल व उद्यान में भ्रमण कराया और ज्ञान के उपदेश से सारे महल को स्वप्न की भाँति बताया । जैसे स्वप्न में मनुष्य सृष्टि बना लेता है और जागने पर अनायास ही बिखेर देता है, ऐसे ही जाग्रत की सृष्टि होती है ।
- बाबाजी बोले : “लाहिड़ी ! तुम्हें भूख लगी है । अपनी आँखें बंद करो ।” और ऐसा करने से लाहिड़ी ने देखा कि सारा महल अदृश्य हो गया और उनके सम्मुख खाद्य-पदार्थ उपस्थित हो गये ।
- लाहिड़ी ने अपनी भूख-प्यास तो मिटायी लेकिन अब उन्हें जगत से वैराग्य हो गया और वे बाबाजी के बताये अनुसार साधना में लग गये । अंततः गुरुदेव की पूर्ण कृपा पचाकर लाहिड़ी आत्मपद में आसीन हो निहाल हो गये ।