आप भी अपनी आत्मशक्ति जगाओ !
-पूज्य बापूजी
जितना जीवन में शक्ति का विकास होता है, उतना ही जीवन हर क्षेत्र में सार्थक होता है । नवरात्रि शक्ति की आराधना-उपासना के दिन हैं । सनातन धर्म के जो भी देव हैं, वे दुर्बलता को नहीं मानते । इसलिए सब देवों के पास आसुरी शक्तियों का प्रतिकार करने के लिए अस्त्र-शस्त्र हैं । हनुमान जी के पास गदा है, रामजी के पास धनुष-बाण है, श्रीकृष्ण, विष्णुजी के पास सुदर्शन चक्र है ।
समाज या संसार में देखा गया है कि तुम्हारे विचार कितने भी अच्छे हों, तुम कितने भी सज्जन और पवित्र हो लेकिन तुम शक्तिहीन हो तो तुम्हारे को कोई गिनती में नहीं लेगा । जिनके हलके विचार हैं, जो आसुरी प्रवृत्ति के हैं लेकिन शक्ति सम्पन्न हैं तो उनके विचार फैल जायेंगे ।
विचार अच्छे हैं या बुरे हैं इसलिए उनका फैलाव होता है… ऐसी बात नहीं है, उनके पीछे शक्ति होती है तो फैलाव होता है ।
जीवन में शक्ति ऐसी होनी चाहिए कि मौत जब आये तो अपनी एक दृष्टिमात्र से मौत का रुख भी बदल जाए हमारे से व्यवहार करने में ।
मंसूर, महात्मा बुद्ध, श्री रामकृष्ण परमहंस, संत एकनाथ और संत ज्ञानेश्वर जी जैसे महापुरुषों के जीवन में विरोध, संघर्ष कितना ही घटा, फिर भी उनके हृदय में शांति बनी रही… यह शक्ति का फल है ।
“नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः…”
(मुण्डकोपनिषद : ३.२.४)
अर्थात दुर्बल मन के व्यक्ति में आत्मज्ञान टिकता नहीं है ।
कोई भी सिद्धांत, कोई भी मित्र तब तक तुम्हें विशेष सहायता नहीं कर पाता जब तक तुम शक्तिहीन हो । तुम्हारे पास शक्ति होगी तो तुम्हारे शत्रु भी मित्र हो जायेंगे और तुम अंदर से शक्तिहीन हुए तो मित्र भी किनारा कर जायेंगे । हाँ, सद्गुरु या परमात्मा की बात अलग है, वे कभी साथ नहीं छोड़ते ।
एक होती है शारीरिक शक्ति, जैसे गामा पहलवान, दारा सिंह, किंगकॉंग आदि के पास थी लेकिन शरीर की शक्ति सर्वस्व नहीं है । और भी शक्तियाँ होती हैं, जैसे मन की शक्ति, बुद्धि की शक्ति, धन की शक्ति, अस्त्र-शस्त्रों की शक्ति, बड़े आदमियों से जान पहचान की शक्ति आदि । लेकिन ये सब शक्तियाँ आत्मबल पर आधारित हैं ।
व्यक्ति जब भीतर से आत्मशक्ति से हारता है तो छोटे-छोटे, तुच्छ आदमी भी उसको हरा देंगे और जिसने आत्मशक्ति नहीं खोयी उसको बड़े-बड़े असुर भी नहीं हरा सकते ।
जगदम्बा का प्राकट्य कैसे हुआ ? महिषासुर का मरण कैसे हुआ ? – इस विषय में आपने पौराणिक ढंग से कहानी सुनी है किंतु तात्विक दृष्टि से देखा जाए तो सुरों-असुरों का युद्ध अनादि काल से चला आ रहा है । जब-जब सुर (देवगण) कमजोर होते हैं और असुर जोर पकड़ते हैं तो अशांति, हाहाकार मच जाता है और जब देवता, सज्जन लोग भगवान की शरण जाते हैं तो भगवान का सहयोग पाकर वे असुरों पर विजय पा लेते हैं । फिर सुख-शांति, अमन-चैन का वातावरण होता है ।
जब दुःख, विघ्न-बाधाएं आती हैं तो तुम्हें अपनी सुषुप्त शक्ति जागृत करने का संकेत देती हैं और जब सुख-सुविधाएँ आती हैं और तुम उनका सदुपयोग करके उनमें फँसते नहीं हो तो वे ही सुविधा और सुख परम सुख के द्वार खोल देती हैं ।
शक्ति की उपासना नवरात्रियों में करते हैं । जैसा व्यक्ति होता है, उसकी उपासना उस प्रकार की होती है लेकिन जीवन में शक्ति की आवश्यकता तो है । स्थूल शरीर की शक्ति, मन की शक्ति, बुद्धि की शक्ति – ये तीनों शक्तियाँ हों लेकिन ये आने के बाद क्षीण भी हो जाती हैं । जवानी में शरीर, मन व बुद्धि की शक्ति रहती है । लेकिन ये प्रकृति-अंतर्गत हैं । परंतु जब आत्मशक्ति आती है तो वह परम शक्ति है ।
जैसे आधिदैविक, आधिभौतिक, मानसिक शांति – ये शांतियाँ आती-जाती हैं लेकिन जब तत्वज्ञान होता है तो ‘ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिम्…’ तत्वज्ञान मिलने पर परम शांति आती है और तत्वज्ञान गुरुप्रसाद और आत्मविचार का फल है ।
~ऋषि प्रसाद / सितम्बर २०१९