- जब हनुमानजी श्री रामचन्द्रजी की सुग्रीव से मित्रता कराते हैं, तब सुग्रीव अपना दुःख अपने हृदय की हर बात भगवान के सामने रख देता है । सुग्रीव की निखालिसता से प्रभु गद्गद हो जाते हैं । तब सुग्रीव को धीरज बँधाते हुए भगवान श्रीराम प्रतिज्ञा करते हैं…
सुनु सुग्रीव मारिहउँ बालिहि एकह बान ।… ( श्री रामचरित. कि.कां. …6 )
- ‘सुग्रीव ! मैं एक ही बाण से बालि का वध करूँगा । तुम किष्किन्धापुरी जाकर बालि को चुनौती दो ।’
- सुग्रीव आश्चर्य से बोले … ‘‘प्रभो ! बालि को आप मारेंगे या मैं ?
- भगवान … ‘‘मैं मारूँगा ।”
- ‘‘तो फिर मुझे क्यों भेज रहे हैं ?”
- ‘‘लडोगे तुम और मारूँगा मैं ।”
- भगवान का संकेत है कि ‘पुरुषार्थ तो जीव को करना है परंतु उसका फल देना ईश्वर के हाथ में है ।’
- लक्ष्मणजी ने पूछा … ‘‘प्रभो ! सुग्रीव की कथा सुनकर यही लगता है कि भागना ही उसका चरित्र है । आपने क्या सोचकर उससे मित्रता की है ?”
- रामजी बोले … ‘‘लक्ष्मण ! उसके दूसरे पक्ष को भी तो देखो । तुम्हें लगता है कि सुग्रीव दुर्बल है और बालि बलवान है पर जब सुग्रीव भागा और बालि ने उसका पीछा किया तो वह सुग्रीव को नहीं पकड़ सका ।”
- भागने की ऐसी कला कि अभिमानरूपी बालि हमें बंदी न बना सके । और सुग्रीव पता लगाने की कला में भी कितना निपुण और विलक्षण है !
- उसने पता लगा लिया कि बालि अन्य सभी जगह तो जा सकता है परंतु ऋष्यमूक पर्वत पर नहीं जा सकता । सीताजी का पता लगाने के लिए इससे बढकर पात्र दूसरा कोई हो ही नहीं सकता ।
- जब सुग्रीव बालि से हारकर आया तो भगवान राम ने उसे माला पहनायी । लक्ष्मणजी ने कहा … ‘‘आपने तो सृष्टि का नियम ही बदल दिया । जीतनेवाले को माला पहनाते तो देखा है पर हारनेवाले को माला…!”
- प्रभु मुस्कराये, बोले … ‘‘संसार में तो जीतनेवाले को ही सम्मान दिया जाता है परंतु मेरे यहाँ जो हार जाता है, उसे ही मैं माला पहनाता हूँ ।”
- भगवान राम का अभिप्राय यह है कि सुग्रीव को अपनी असमर्थताओं का भलीभाँति बोध है। जो लोग स्वयं को असमर्थ जानकर भगवान व गुरु की शरणागति स्वीकार करते हैं, उन्हें चरम सार्थकता की उपलब्धि हो जाती है ।
- लक्ष्मणजी पूछते हैं … ‘‘महाराज ! नवधा भक्ति में से कौन-कौन-सी भक्ति आपको सुग्रीव में दिखाई दे रही हैं ?”
- प्रभु ने कहा … ‘‘प्रथम भी दिखाई दे रही है और नौवीं भी….”
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा । हनुमानजी जैसे संत इन्हें प्राप्त हैं ।
नवम सरल सब सन छलहीना ।
- अंत…करण में सरलता और निश्छलता है । अपनी आत्मकथा सुनाते समय सुग्रीव ने अपने भागने को, पराजय को, दुर्बलता को कहीं भी छिपाने की चेष्टा नहीं की । सुग्रीव का एक अन्य श्रेष्ठ पक्ष है ऋष्यमूक पर्वत पर निवास करना । वहाँ ऋषि लोग मूक (मौन) होकर निवास करते थे । ऋष्यमूक पर्वत पर बालि नहीं आ सकता था । सुग्रीव जब उस पर्वत से नीचे उतर आता है तो उसे बालि का डर बना रहता था ।
- यहाँ पर संकेत है कि जब तक हम महापुरुषों के सत्संगरूपी ऋष्यमूक पर्वत पर बैठते हैं, सत्संग से प्राप्त ज्ञान का आदर करते हैं, तबतक सब ठीक रहता है परंतु ज्यों ही सत्संग के उच्च विचारों से मन नीचे आता है तो फिर से अभिमानरूपी बालि का भय बना रहता है ।
- संकल्प : ‘हमें भी श्रीरामजी जैसी गुणग्राही दृष्टि बनानी चाहिए, क्योंकि ईश्वर ने सभी जीवों में कुछ-न-कुछ योग्यता दी है ।