➠ कई बच्चे-बच्चियाँ आते हैं, कई साधक आते हैं और बोलते हैं कि ‘बापूजी ! बहुत अच्छा लगता है, बहुत आनंद आता है… आशीर्वाद दीजिये कि हम जिंदगी भर बाल संस्कार केंद्र चलायें, खूब चलाएं…’
➠ इन शिक्षकों को बच्चे तो कुछ देते नहीं तथा बापू भी पगार देते नहीं और कभी कोई लोग कुछ-का-कुछ भी बोलें तब भी फिक्र नहीं… और फिर भी इनको दैवी सेवाकार्य अच्छा लग रहा है तो इसका सीधा अर्थ है कि इनके हृदय में वासना निवृत्ति से भगवान की, आत्मा के आनंद की झलकें शुरू हुई हैं और एक दिन आनंद स्वरूप में बुद्धि की स्थिति भी हो जायेगी।
➠ कभी ऐसा नहीं सोचना कि ‘बाल संस्कार केन्द्र में पहले ज्यादा बच्चे आते थे, अभी कम आते हैं। हाय रे हाय ! मेरी कोई गलती है।’
➠ नहीं-नहीं, इसी का नाम दुनिया है। कभी कम-कभी ज्यादा, कभी यश-कभी अपयश, कभी सफलता-कभी विफलता – सब दुनिया में होता रहता है। शाश्वत तत्त्व एकरस है और माया में उतार-चढ़ाव हुए बिना रहता ही नहीं। इसीलिए बच्चे बढ़ जायें तो अभिमान नहीं करना और कभी कम हो जायें तो सिकुड़ना मत।
लक्ष्य न ओझल होने पाये, कदम मिलाकर चल (शास्त्र व ब्रह्मज्ञानी संत से) ।
सफलता तेरे चरण चूमेगी, आज नहीं तो कल ॥
➠ पक्का इरादा करो, ‘बाल संस्कार केन्द्र और बढ़ायेंगे और बच्चों में भी ये संस्कार डालेंगे।’ वे बहादुर बच्चे हैं जो दूसरे बच्चों को भी दैवी कार्य में लगाते हैं। वे हिम्मत वाले हैं।
ऋषि प्रसाद / अगस्त २०१८